Chapter 2 Shloka 70

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।७०।।

Just as the ocean remains calm even when

turbulent waters pour into it from all sides,

similarly a person of steady intellect remains peaceful

even as all desires converge within him; those who crave

for the fulfilment of desire do not find peace.

Chapter 2 Shloka 70

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।७०।।

 

Eulogising the qualities of the Sthit Pragya, the Lord says:

Just as the ocean remains calm even when turbulent waters pour into it from all sides, similarly a person of steady intellect remains peaceful even as all desires converge within him; those who crave for the fulfilment of desire do not find peace.

Just as several streams and rivers enter the ocean, yet:

a) the calm of the ocean remains unaffected;

b) no floods occur and the inpouring waters do not disturb its essential nature;

c) its form undergoes no change;

d) it does not become big or small, nor does it degenerate or become impure.

1. Similarly, a person of steady wisdom remains unaffected by the objects of His senses.

2. All the objects of the world put together cannot arouse attachment within Him.

3. They cannot disturb Him, they cannot make Him happy or sad.

4. They cannot leave Him unsatiated in any way.

5. They cannot misguide Him nor allure Him away from the Truth.

6. They cannot rob Him of His virtue.

7. They cannot touch the Yogi’s intellect nor bind Him in any way.

8. They cannot cause any aberration or change in His nature.

9. They are unable to fetter Him again to His body.

Such a One remains ever satiated and abides in peace. If He does not claim His body as His own, then for whom will He desire anything?

Those who are full of desires and dwell in external objects only, can never attain this peace.

अध्याय २

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।७०।।

स्थित प्रज्ञ की महिमा गाते हुए भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. जैसे चहुँ ओर से पूर्ण जल

२. महा प्रतिष्ठित अचल सागर में प्रवेश करता है,

३. वैसे ही सम्पूर्ण कामनायें जिसमें प्रतिष्ठित होती हैं (लय होती हैं),

४. वह शान्ति पाता है।

५. काम की कामना करने वाला नहीं (शान्ति पाता)।

तत्व विस्तार :

ज्यों सम्पूर्ण जल, नदियाँ, नाले इत्यादि महासागर में विलीन हो जाते हैं तब भी समुद्र :

क) तनिक भी प्रभावित नहीं होता उन नदियों के जल से।

ख) स्वभाव नहीं बदलता सागर का कभी।

ग) वह कोई विशेष नवीन गुण नहीं पाता।

घ) उसका रूप नहीं बदलता।

ङ) वह छोटा या बड़ा नहीं होता।

च) वह कोई विकार प्राप्त नहीं करता और मलिन नहीं होता।

कोई बाढ़ नहीं आती समुद्र में नदियों के जल के कारण। उसी विधि संयमी पुरुष को सम्पूर्ण विषय:

1. ज़रा भी प्रभावित और प्रलोभित नहीं कर सकते।

2. उसमें संग उत्पन्न नहीं कर सकते।

3. उसे सुखी दु:खी नहीं कर सकते।

4. उसे अतृप्त नहीं कर सकते।

5. उसे चलायमान नहीं कर सकते।

6. उसका सतीत्व हरण नहीं कर सकते।

7. उस आत्मा से योग पाये हुए की बुद्धि को विचलित नहीं कर सकते।

8. उस आत्मवान् को बांध नहीं सकते।

9. उसमें कोई भी विकार उत्पन्न नहीं कर सकते।

10. उसका स्वभाव नहीं बदल सकते।

11. उस आत्मवान् को दोषयुक्त और लिपायमान नहीं कर सकते।

12. उस आत्मवान् को तन से पुन: बांध नहीं सकते।

वह आत्मवान् तो नित्य तृप्त और नित्य प्रशान्त होता है।

नन्हीं! उसका तन ही अपना नहीं रहा तो वह किसके लिये कामना करे?

कामनाओं से भरपूर, विषय अर्थ अर्थी इस शान्ति को नहीं पा सकते।

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