अध्याय २
विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति।।७१।।
शब्दार्थ :
१. जो पुरुष कामनाओं को छोड़ कर,
२. इच्छा रहित विचरता है,
३. वह निर्मम और निरहंकार हुआ,
४. शान्ति को पाता है।
तत्व विस्तार :
जो सम्पूर्ण कामनाओं से मुक्त हुआ, इच्छा और कामना से रहित हुआ जग में विचरता है, वह निर्मम है अर्थात् :
1. उसका कुछ भी नहीं होता, उसका कोई भी नहीं होता।
2. उसका अपना तन ही अपना नहीं होता तो किसी और पर वह क्या हक़ रखेगा?
3. उसका किसी पर हक़ नहीं होता।
4. उसकी अपनी चाहना भी नहीं होती।
5. उसका अपना कोई लक्ष्य भी नहीं होता।
6. वह किसी ज्ञान को भी अपनाता नहीं।
7. तन, मन, बुद्धि ही अपने नहीं रहे तो तन के प्राण वह कैसे अपने कहे?
8. वह तो अपने प्राणों को भी नहीं अपनाता।
याद रहे :
क) उसका कोई नहीं, वह सबका है।
ख) उसकी अपनी चाह नहीं, पर वह दूसरों की चाहना पूर्ण करता रहता है।
ग) अपना काज कोई नहीं रहा, पर वह सबके काज करता है।
घ) अपने अपमान पर वह मौन रहता है, पर दूसरे के मान के लिये लड़ता है।
ङ) उसे प्यार मिले या न भी मिले, वह नित्य प्रेम ही करता है।
च) वह समत्व भाव में विचरता है।
‘निरहंकार’ को समझने के लिये पहले अहंकार को समझ ले :
अहंकार = अहं+कार
अहं का अर्थ है ‘मैं’। तन के तद्रूप होकर जीव अपनी ओर सम्बोधन ‘मैं’ कह कर करता है।
कार का अर्थ है :
1. ‘मैं’ को बनाने वाला
2. ‘मैं’ का निर्माता
3. आत्म सम्बन्धी।
अहंकार का अर्थ है :
1. आत्म सम्बन्धी अभिमान, जो अपने आपको दूसरों से अलग करे।
2. जो अपने आपको व्यक्तिगत बनाये।
3. अभिमान ही अहंकार है।
4. पर अपने आपको तन कहना भी तो अहंकार है।
5. ‘मैं’ की रचना ही तो अहंकार है।
जहाँ ‘मैं’ का कोई स्थान ही नहीं, उसे वह अपना आप मानना छोड़ देता है। तब वह निरहंकार हो जाता है।
नन्हीं! गुण से रचे हुए इस तन को अपना आप मान लेना अपनी तौहीन करना है। गुण गुणों के खिलवाड़ में ‘मैं’ का कर्तापन मिला देना भूल है, फिर किसी पर अपना अधिकार बना लेना भूल है।
भगवान कहते हैं जो संग रहित, कामना रहित, किसी पर अधिकार रहित और अपने तन के प्रति भी अहंकार रहित होते हैं, वह शान्ति को पाते हैं।
शान्ति का अर्थ नित्य आनन्द है, नित्य मौन है।
नन्हीं! एक बार फिर ध्यान से सुन! भगवान ने कहा स्थूल विषयों की कामना न रहे तो तुम्हारा मन संग से रहित हो जायेगा। बुद्धि ममत्व भाव यानि, किसी पर अधिकार न रखे, फिर ‘मैं’ अपने तन से ‘मैं’ पन रूप अहंकार छोड़ दे, तब यह शान्ति मिलती है, तब इस नित्य आनन्द में स्थिति होती है।