Chapter 2 Shloka 65

प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते।।६५।।

Upon obtaining that prasaad,

such a one becomes devoid of all sorrow;

the intellect of that joyous one

soon becomes steady.

Chapter 2 Shloka 65

प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते।।६५।।

Upon obtaining that prasaad, such a one becomes devoid of all sorrow; the intellect of that joyous one soon becomes steady.

Little one! The Lord says that the one who receives that sanctified prasaad is delivered from sorrow.

1. Such a one abides in the Lord and is constantly immersed in His thoughts; he has no time to dwell in thoughts of his personal joy or sorrow.

2. Unmindful of his body-self, he continually performs selfless actions for others’ welfare.

3. As his attachment with his body recedes, his attention is drawn away from the pain or sorrow experienced by the body.

4. When the body is no longer his, nothing remains to be attained in the world.

5. If nothing is worthy of attainment, then of what consequence is the mind and its desires?

6. There remains no room nor cause for reproach or recriminations.

7. When ones’ relationship with the body ceases, how does it matter if the body meets with the good and auspicious, or the bad and inauspicious?

8. Through his love for God, such an elevated soul receives the prasaad of detachment. As his love grows, joy prevails and his intellect becomes steady. Moha which arose due to body attachment and concealed the intellect, now dies a natural death:

­­–  Its very roots dry up.

­­–  The attachment to the sense faculties and their objects also goes.

­­–  No desire remains.

Such a one is ever satiated. His intellect is no longer veiled. He is free from attachment and without blemish. His intellect is stable and impartial because it is uninfluenced by any personal constraints and thus able to take just decisions based on Truth.

अध्याय २

प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते।।६५।।

अब भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. उस प्रसाद के मिलने से

२. इनके सम्पूर्ण दु:खों का अभाव हो जाता है।

३. प्रसन्नचित्त वाले (पुरुष) की बुद्धि

४. शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।

तत्व विस्तार :

नन्हीं जान्! भगवान कहते हैं कि प्रसाद से दु:ख का अभाव हो जाता है।

क) ये लोग भागवद् परायण होते हैं और इनका ध्यान भगवान में टिका हुआ होता है। अपने सुख दु:ख देखने की इनके पास फ़ुर्सत ही नहीं होती।

ख) ये अपने तन को भूल कर निष्काम भाव से कर्तव्य करते हैं।

ग) ज्यों ज्यों अपने तन से संग मिटने लगता है त्यों त्यों तन के दु:ख इत्यादि पर ध्यान ही नहीं जाता।

घ) जब तन ही अपना नहीं रहता तो संसार में अपने लिये प्राप्तव्य भी कुछ नहीं रहता।

ङ) जब प्राप्तव्य ही कुछ नहीं रहे तो मन चाहना भी किसकी करे? फिर जब चाहना ही कोई नहीं रहती तो मन के सब गिले शिकवे बन्द हो जाते हैं।

च) जब तन से नाता नहीं रहता, तन को शुभ मिला या अशुभ मिला, इसकी परवाह कौन करे?

छ) भागवद् प्रेम के कारण वे अपने तन के प्रति उदासीनता रूपा प्रसाद पा चुके होते हैं।

ज) परमात्मा में लग्न ज्यों ज्यों बढ़ने लगती है, उसके अनुरूप वह देहात्म बुद्धि से परे होने लगते हैं और उसी के अनुरूप आनन्द मनी होने लगते हैं। ऐसे आनन्दमय जीवन की बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है। तनो संग के कारण ही मोह उठता था जो बुद्धि को आवृत करता था। अब तन से ही संग नहीं रहा तो :

1. मोह का मूल ही सूख जाता है।

2. तनो इन्द्रियों से भी संग नहीं रहता।

3. विषयों से भी संग नहीं रहता।

4. कोई कामना भी नहीं रहती।

वह तो नित्य तृप्त हो गया। उसकी बुद्धि पर आवरण कोई नहीं रहा, वह तो निरासक्त हो गया। निर्दोष तो वह स्वत: ही हो गया। उसकी नित्य अप्रभावित बुद्धि स्थिर ही होती है।

नन्हीं! यदि अपना कोई प्रयोजन हो तब बुद्धि आवृत हो जाती है। जब अपना प्रयोजन कोई है ही नहीं तो बुद्धि निरपेक्ष ही रहती है। जब अपना ध्यान ही नहीं रहे तब बुद्धि सत्पूर्ण न्याय कर सकेगी।

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