अध्याय २
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।१५।।
भगवान ने कहा कि सुख और दु:ख दोनों को सहन कर। अब कहते हैं कि यह मैंने इसलिये कहा क्योंकि :
शब्दार्थ :
१. हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन!
२. सुख दु:ख को समान समझने वाले,
३. जिस धीर पुरुष को,
४. यह इन्द्रियों के विषय,
५. व्याकुल नहीं कर सकते,
६. वह अमरत्व पाने के योग्य होता है।
तत्व विस्तार :
देख मेरी जाने जान्! ज़रा ध्यान से सुन! भगवान कहते हैं :
1. जो जीव दु:ख सुख में सम रहता है;
2. जो जीव दु:ख सुख को सम मानता है;
3. जो दु:ख सुख से कभी भी विचलित नहीं होता है;
4. जो दु:ख सुख के प्रति उदासीन होता है, उसे समता प्राप्त है।
ध्यान से देख! जो जीव इस समता को पाया हुआ होगा, वह :
1. विषयों से नित्य अप्रभावित होगा।
2. मान अपमान, हानि लाभ से नित्य ही अप्रभावित रहेगा।
3. किसी भी परिस्थिति में उसका मन विचलित नहीं होगा।
4. वह निवृत्ति या प्रवृत्ति, दोनों की ओर निरपेक्ष तथा उदासीन रहेगा।
5. उसे प्रिय मिले या अप्रिय मिले, वह दोनों के प्रति उदासीन होगा।
6. वह हर परिस्थिति के प्रति समदृष्टि और समभाव रखने वाला होगा।
7. वह तो नित्य निरासक्त होगा।
8. वह तो नित्य तृप्त भी होगा।
9. जो दु:ख सुख में सम होगा, वह तो उद्विग्नता रहित मन वाला होगा।
10. उसे द्वन्द्व क्या सतायेगा?
ऐसे जीव का जीवन अपने लिये तो होगा ही नहीं क्योंकि :
क) वह अपने लिये कुछ नहीं करेगा।
ख) वह अपने मान को बचाने के लिये कुछ प्रयत्न नहीं करेगा।
ग) वह अपने अपमान से बचने के लिये कुछ नहीं करेगा।
घ) वह किसी सुख को पाने के लिये कुछ करेगा ही नहीं। दु:ख से निवृत्ति पाने के लिये कुछ करेगा ही नहीं।
नन्हीं! इस स्थिति को पाने की विधि तथा इस के होने का प्रमाण भी तू जान ले!
जीवन की साधारण परिस्थितियों में ही समता का अभ्यास हो सकता है और जीवन की साधारण परिस्थितियों में ही इसका प्रमाण मिल सकता है।
1. सारे ज़माने के आक्षेप सह लेने आसान होते हैं, अपने ही घरवालों से अपमान करवा कर मौन रहना महा कठिन है।
2. ज़माने भर का मान, अपने किसी छोटे से कर्तव्य के लिये गंवा देना महा कठिन है।
3. जग की सेवा करना आसान है; जो अपने घर में नित्य ठुकरायें और अपमान करें, उनके प्रति कर्तव्य निभाना कठिन है।
4. जो आपके अनुकूल हैं, उनको प्यार करना आसान है। जो आपके ही दुश्मन हैं, उनसे प्रेम करना कठिन है।
5. अनुकूलता में समचित्त रहना आसान है, प्रतिकूलता में समचित्त रहना बहुत कठिन है।
6. रुचिकर काम करने में प्रवृत्ति तथा अरुचिकर का त्याग कर देने को निवृत्ति समझना आसान है। रुचि अरुचि भूल कर, प्रवृत्ति या निवृत्ति, दोनों में समचित्त रहना कठिन है।
सो इनका अभ्यास भी सहज जीवन में ही करना चाहिये; वरना पूर्ण ज्ञान केवल शब्द ज्ञान ही रह जायेगा। दु:ख सुख में सम रहने वाले लोग साधारण जीवन में नित्य आनन्द में रहते हैं। वैसे भी, दैवी गुणों का अभ्यास तो विपरीत परिस्थितियों में ही हो सकता है। गुणातीतता का अभ्यास भी गुणों वाले व्यक्तियों में रह कर ही तो हो सकता है। जो दु:ख सुख, यानि, रुचिकर अरुचिकर में सम रहते हैं, वह अमरत्व के योग्य हैं, क्योंकि वह तनत्व भाव से परे होते हैं।