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Chapter 2 Shloka 29
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।२९।।
Some perceive it with wonder;
some talk about it with wonder;
others hear about it with wonder.
Some do not know it even after hearing about it.
Chapter 2 Shloka 29
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।२९।।
Some perceive it with wonder; some talk about it with wonder; others hear about it with wonder. Some do not know it even after hearing about it.
Little one, understand this shloka from three angles – the point of view of the Atma, the jivatma who abides in the body, and death.
1. One looks upon death with wonder:
a) How did it happen?
b) Where did the departed one go after death?
c) Whence did he come?
d) Have we really parted?
e) Will he not return?
f) Just a moment ago he was conscious and now he is inert.
g) He was a saint – he was wicked; he was full of pride and now he is an image of clay. What is this phenomenon?
h) Now he is neither a son nor a father, now no relationship remains.
i) The whole world was his – now he is left without any possessions.
j) He was boastful and arrogant with pride – now where has that ego, that haughtiness gone?
k) He, who had never bowed his head, now lies on the ground at the feet of all; is he the same person?
l) Where is his bed of flowers? He now lies on the bare pyre.
The sadhak is astounded at perceiving this strange phenomenon.
2. Some speak of death with wonder:
a) One can feel the inadequacy of words.
b) Can one say what has happened?
c) Whence did he come, whither did he go, can anyone tell?
d) Beholding this extraordinary happening, one is left speechless.
e) Words cannot describe it, no matter how hard one tries – indeed, who can describe death itself?
f) One can only wonder at the failure of speech.
g) Can one hear, what cannot be spoken?
Words fail to describe that incredible phenomenon. How can the earthly describe the other world? Can a miracle be described? Indeed, how can one hear or describe what is beyond words?
3. The same can be said about the Atma:
a) The Atma is said to be eternal, indestructible, formless, all-pervading, and changeless;
b) It is immovable, constant, actionless;
c) It is complete and perfect, yet without qualities;
d) It is ancient and immortal, so it is said.
– It is the power behind the word and the master of speech; how can speech describe it?
– It is the power behind sound and the master of hearing; how can one hear it?
– It is the power behind vision and the master of sight; how can one see it?
How can one see that which is formless? Whoever seeks to approach It, is left dumbfounded.
The intellect is unable to grasp It, the mind cannot reach It, It is not an object of the organs of sense. Every aspect evokes surprise and amazement.
In actual fact:
a) One can only know the Atma by becoming an Atmavaan.
b) When the ‘I’ renounces attachment with the body, and identifies with the Atma, only then can that Atma be known.
c) One merges with one’s true Self and Essence only when the body idea is completely annihilated.
d) Then the ‘I’ merges with the Atma. The body still traverses the world, but its master, the ‘I’, has forsaken it. Such a one conducts himself like any ordinary person but is extremely extraordinary, since he is completely devoid of the ‘I’. It is extremely difficult to recognise such a one, and when you do, you are filled with even greater wonder!
4. From the point of view of the jivatma.
a) For an individual, birth and death are inevitable;
b) No one knows the jivatma’s fate after death or before birth;
c) What will be the fruit of the jivatma’s actions ever remains a surmise.
Little one, this will be discussed in detail later. It is enough to understand now that if one contemplates these matters in detail, one is left in amazed wonderment. That pandit or man of wisdom, who realises the truth of all these matters, abides in silence and, transcending the mortal body, becomes an Atmavaan.
Having said all this, the Lord now says, O Arjuna! It causes great amazement to know that one is not the body but the Atma. Yet, despite knowing this, nobody can understand it. Little one, even the Knower of the Truth, the Atmavaan, cannot claim, ‘I know’.
अध्याय २
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।२९।।
भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. आश्चर्यवत् कोई इसे देखता है,
२. कोई आश्चर्यवत् इसकी बात करता है,
३. कोई आश्चर्यवत् इसको सुनता है,
४. कोई इसे सुन कर भी नहीं जानता।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! आत्मा की कहते हैं, या मृत्यु की वह बात कहें, या देही की बात कहते हैं। प्रथम तीनों कोण से देख ले।
1. मृत्यु देख कर आश्चर्य होता है।
क) यह क्या कैसे हो गया?
ख) जो बिछुड़ गया, वह कहाँ गया?
ग) कहाँ से यह संसार में आया था?
घ) क्या सच ही यह बिछुड़ गया?
ङ) क्या पुन: लौट नहीं आयेगा?
च) अभी अभी यह चेतन था और इक पल में यह जड़ हो गया।
छ) अभी संत था, अभी दुष्ट भी था, इतराता भी था, अब माटी बुत ही रह गया, यह कैसे हुआ?
ज) न वह अब पितु रहा, न पुत्र रहा, नाता कोई भी नहीं रहा।
झ) पूर्ण संसार जो उसका था, उसका अब कुछ भी नहीं रहा।
ञ) इतराता था, इठलाता था, दम्भ दर्प से भरा था। वह अहंकार, वह गुमान पुंज, कहाँ गया, क्या हुआ?
ट) जिसने कभी न सीस झुकाया था, सम्मुख धरती पर गिरा हुआ क्या वह वही है?
ठ) अब पुष्प सेज कहाँ गई? चिता पर उसको लाये धरा।
ड) विचित्र लीला वह देख रहा, देखी साधक है चकित भया।
ढ) विस्मय पूर्ण दृश्य देख, आश्चर्यवत् है देख रहा।
2. आश्चर्यवत् कोई मृत्यु की कहता है :
1. शब्द न्यूनता महसूस करता है।
2. क्या हो गया, क्या वह कह सकता है?
3. कहाँ से आया, कहाँ गया, कैसे कहे, कुछ समझ नहीं आता।
4. अद्भुत लीला हो रही है, फिर भी शब्दों में कुछ नहीं कह सकता।
5. वाक् उसे नहीं बांध सकते।
6. सोची सोची जो भी कहे, उसे वक्ता स्वयं ही न्यून पाता है।
7. मृत्यु का विवरण क्या कर सकते हैं?
8. वाक् न्यूनता पे मानो, आश्चर्य ही वह किया करते हैं।
9. जिसकी कह न सकें, उसका श्रवण क्या हो सकता है?
जीव शब्द ही तो सुनता है। अलौकिक की लौकिक कहेगा भी क्या? चमत्कार की व्याख्या क्या हो सकती है? श्रवण, वदन् उसका क्या होगा, जो शब्द परे की बात है?
3. आत्मा की भी यही बात है।
क) उसको अक्षर, अविनाशी नित्य कहते हैं।
ख) अचल, निष्क्रिय, कूटस्थ भी कहते हैं।
ग) अजर, अमर कहते हैं उसको।
घ) सर्वव्यापी पर निराकार भी कहते हैं।
ङ) अविच्छिन्न या पूर्ण भी कहते हैं।
च) अखण्ड तत्व भी उसको कहते हैं।
छ) शाश्वत तत्व भी आत्मा को कहते हैं।
ज) उसे निर्विकार भी कहते हैं।
झ) गुण रहित सनातन तत्व भी कहते हैं।
भई! वाक् पति और वाक् में जो शक्ति है, उस शक्ति का भी पति आत्मा है। उसकी बातें वाक् कैसे कह सकते हैं? श्रोत् पति और श्रोत् शक्तिपति जो आत्मा है, श्रवण में वह कैसे आ सकता है? नेत्र पति और नेत्र शक्ति पति वह आत्मा है, नेत्र या दृष्टि उसे कैसे देख सकते हैं? फिर वह तो निराकार है, दृष्टि का विषय तो वह है ही नहीं। उसे देखें भी तो कैसे? जो भी उसकी ओर जाना चाहता है, वह आश्चर्य चकित ही रह जाता है।
बुद्धि उसे समझ नहीं सकती, मन वहाँ पहुँच नहीं सकता, इन्द्रियों का वह विषय नहीं है। तो बताओ! उसकी हर बात पर आश्चर्य न हो तो क्या हो? वास्तविकता यह है कि :
क) आत्मवान् होकर ही आत्मा को जान सकते हैं।
ख) ‘मैं’ जब तनो तद्रूपता छोड़ कर आत्मा के तद्रूप हो जाये, तब ही उसको जान सकते हैं।
ग) तनत्व भाव के नितान्त अभाव के पश्चात् जीव आत्म स्वरूप हो जाता है।
घ) तब उसकी ‘मैं’ आत्मा में लीन हो जाती है। फिर तन तो जहान में रहता है, किन्तु तन का मालिक ‘मैं’ नहीं रहता। वह तन सब कुछ एक साधारण व्यक्ति की तरह करता है, किन्तु ‘मैं’ के अभाव के कारण अतीव विलक्षण होता है। ऐसे आत्मवान् को पहचानना तो अतीव कठिन है और जब वह पहचाना जाये, तब और भी आश्चर्य होता है।
4. अब जीवात्मा या देही के दृष्टिकोण से समझ ले :
क) जीवात्मा जन्मता और मरता है, यह तुम मानते हो।
ख) इस जन्म मरण के पश्चात् क्या होता है, उसकी कौन जाने?
ग) कर्मों का फल क्या मिलेगा और इस जीवन में किस कर्म का क्या फल मिलेगा, यह भी विस्मयपूर्ण बात है।
नन्हीं! यह सब विस्तार पूर्वक फिर कभी कहेंगे। अभी इतना ही समझ लो कि यदि ध्यान से इन सब बातों को सोचें, तो केवल आश्चर्य चकित रह जाते हैं। पण्डित गण तो मौन हो जाते हैं, क्योंकि वह तनत्व भाव से परे होकर आत्मवान् हो जाते हैं।
यह सब कह कर भगवान् अन्त में कहते हैं कि अर्जुन! इसे देख कर, सुन कर आश्चर्य तो बहुत होता है कि आप तन नहीं हो, बल्कि आत्मा हो। किन्तु यह सब जान कर भी, इसे कोई नहीं जान पाता, सब समझ कर भी इसे कोई नहीं समझ पाता।
नन्हीं! तत्ववेता और आत्मवान् भी इसको जान कर ‘मैं जानता हूँ’ ऐसा नहीं कह सकते।