Chapter 2 Shloka 63

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।६३।।

Anger leads to delusion,

delusion leads to loss of memory;

consequently the intellect is destroyed

and with the loss of intellect

the individual himself is ruined.

Chapter 2 Shloka 63

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।६३।।

Anger leads to delusion, delusion leads to loss of memory; consequently the intellect is destroyed and with the loss of intellect the individual himself is ruined.

Little one, understand the meaning of sammoha (सम्मोह):

Sammoha connotes agitation, madness, unconsciousness, intoxication, ignorance and the loss of intellect. It also means an inability to understand the Truth or discern the true from the untrue.

The Lord states, that when a person is ignited with anger:

a) His mind is under the influence of madness.

b) He is perplexed and anxious.

c) He cannot understand clearly and is no longer able to see the Truth.

d) This in turn leads to loss of discrimination and to the destruction of memory.

Loss of memory of the one deluded by anger – smritivibhramah (स्मृतिविभ्रम:)

1. He becomes oblivious of his own status.

2. He forgets the other’s age in relation to his own.

3. All knowledge is obliterated from his mind.

4. He forgets what the other has said.

5. He forgets promises made.

6. All thoughts of personal reputation, family tradition, social mores recede into the background.

7. He becomes oblivious of common humane behaviour and forgets favours he has received from others.

8. He forgets the gratitude he owes others.

The Lord says of such a one who has thus forgotten all codes of conduct and all relationships, ‘his intellect becomes non-existent’. When his intellect is thus destroyed:

1. How can he discriminate between the true and the untrue, the right and the wrong, the auspicious and the unpropitious?

2. How can he discern which actions are benefactory, and which are not?

3. He is no longer aware of what he must do and what he must not do. He no longer understands the difference between dharma and adharma.

4. He no longer knows the difference between what constitutes his duty and what is not his duty.

The speech of such a one is no longer under his control and unthinkingly, he utters that which should not be said. He enters into unnecessary conflict and shatters all that comes before him.

Having burnt his intellect in the fire of anger, he now proceeds to ‘burn’ others in the same conflagration! He thus destroys any remaining humane qualities within himself. A person without humane qualities can scarcely even be called a human being! The irony is that he who set out to attain his desired object, loses himself in the bargain!

अध्याय २

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।६३।।

अब भगवान आगे कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. क्रोध से सम्मोह उत्पन्न होता है,

२. सम्मोह से स्मरण शक्ति विभ्रान्त हो जाती है,

३. स्मृति के विभ्रान्त हो जाने से बुद्धि नष्ट हो जाती है

४. और बुद्धि के नाश होने से जीव स्वयं नष्ट हो जाता है।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! सम्मोह को समझ ले।

सम्मोह का अर्थ है :

क) विभ्रान्ति,

ख) विमूढ़ता,

ग) मूर्छा,

घ) बहक जाना,

ङ) अज्ञानता,

च) अविवेक,

छ) यानि, जब सत्यता जान ही नहीं सके,

ज) यानि, जब सत्य और असत्य में भेद भी समझ न आये।

भगवान कहते हैं जब  जीव क्रोध से भड़क उठता है तब वह :

1. विभ्रान्त मन वाला हो जाता है।

2. घबराहट पूर्ण हो जाता है।

3. अविवेकी बन जाता है।

4. तब उसकी समझ ठीक नहीं रहती।

फिर कहते हैं, क्रोध के कारण और सम्मोह के कारण उसकी स्मृति का नाश हो जाता है।

स्मृति नाश (स्मृतिविभ्रम:) को अब समझ ले :

क्रोध से सम्मोहित हुए जीव को :

1. अपनी स्थिति याद नहीं रहती।

2. दूसरा बड़ा है या छोटा, यह याद नहीं रहता।

3. अपना सम्पूर्ण ज्ञान भूल जाता है।

4. दूसरों की बातें भी भूल जाता है।

5. सब वायदे भूल जाते हैं।

6. लोक लाज भी भूल जाती है।

7. कुल मर्यादा भी भूल जाती है।

8. इन्सानियत भी भूल जाती है।

9. सम्पूर्ण ज्ञान भी भूल जाता है।

10. दूसरों से जो लाभ हुआ, वह सब भी भूल जाता है।

11. दूसरे के प्रति जो उसमें कृतज्ञता होनी चाहिये, वह भी भूल जाती है।

भगवान कहते हैं, फिर यदि जिसकी स्मृति ही नहीं रही, उसकी बुद्धि का नाश हो जाता है। जब बुद्धि ही नष्ट हो जाये तब:

1. सत् और असत्, उचित और अनुचित, शुभ और अशुभ का निर्णय कैसे हो?

2. श्रेय तथा प्रेय पूर्ण कर्मों का निर्णय कैसे हो?

3. क्या करना चाहये और क्या नहीं करना चाहिये, इसकी भी होश नहीं रहती।

4. धर्म और अधर्म में भेद समझ नहीं आता।

5. जब बुद्धि का नाश हो जाता है तो कर्तव्य तथा अकर्तव्य में भेद नज़र नहीं आता।

जिसकी बुद्धि नष्ट हो चुकी हो वह :

क) जो भी ज़ुबान पर आये, बिना सोचे बोलने लगता है।

ख) जो भी सामने आये, बिन सोचे उससे भिड़ जाता है।

ग) जो भी सामने आये, उसे तोड़ देता है। क्रोध अग्न में अपनी बुद्धि तो मानो जल चुकी है, अब वह दूसरों को भी जलाना चाहता है।

ऐसा इन्सान अपनी इन्सानियत को नष्ट कर देता है और जब इन्सानियत ही नहीं रही तब वह इन्सान इन्सान ही नहीं रहा।

नन्हीं! अजब तमाशा तो यह है कि बेचारा अपनी चाहना को पूर्ण करने चला था और ख़ुद ही खो गया।

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