अध्याय २
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:।
वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:।।४२।।
कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।४३।।
अब भगवान अनन्त शाखाओं वाली बुद्धि वाले लोगों के विषय में बताते हैं और कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन! अविवेकी तथा सकामी पुरुष,
२. जो केवल वेदवाद में रत हैं,
३. केवल स्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ मानते हैं,
४. “और कुछ नहीं है”, ऐसे कहने वाले हैं,
५. वे जन्म रूप कर्म फल को देने वाली
६. और भोग तथा ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये,
७. भान्ति भान्ति की बहुत सी विस्तार वाली क्रियायें करते हैं,
८. और इस प्रकार की जो दिखाऊ, शोभा युक्त वाणी है, उसे कहते हैं।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! अब भगवान सकामी पुरुषों की बातें बताते हैं, जो केवल स्वर्ग को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। ऐश्वर्य से आसक्त हुए ये लोग बहुत बड़े बड़े काम भी करते हैं, शास्त्र कथित वाक्यों से भी रति करते हैं और फिर अपना फ़ायदा उठाने के लिये लोगों से मीठी मीठी बातें करते हैं। ये सब चीज़ें जन्म मरण के चक्र को चलाने वाले कर्म फल को देने वाली हैं।
‘वेदवादरता:’ का अर्थ प्रथम समझ ले, वेदवाद से यहाँ तात्पर्य :
क) ज्ञान की बातों से है।
ख) सत् असत् की बातों से है।
ग) जीवन के बड़े बड़े सिद्धान्तों की बातों से है।
घ) शास्त्रों का आसरा लेकर उचित तथा अनुचित की बातों की ओर संकेत है।
ङ) वेदों के मन्त्रों को कण्ठस्थ करके बोलना भी हो सकता है।
रत:
1. किसी चीज़ में संलग्न होना,
2. किसी विषय से प्रसन्न होना,
3. किसी विषय का सम्भोग होना।
4. किसी विषय पर मुग्ध होना।
5. किसी विषय से संतोष प्राप्त करना।
6. किसी विषय में व्यस्त रहना।
सो वेदवाद रत लोग वे होंगे :
1. जो ज्ञान की बातें करते हैं, परन्तु ज्ञान को जीवन में नहीं मानते।
2. जो ज्ञान के वाक् कण्ठस्थ तो करते हैं, किन्तु अपने जीवन में उन्हें नहीं लाते।
3. जो ज्ञान के वाक् तक ही रह जाते हैं।
4. जो ज्ञान के शब्दों में ही प्रसन्नता पाते हैं।
5. जो ज्ञान के शब्दों में ही अनुरक्त होते हैं।
6. जो ज्ञान के शब्दों में व्यस्त होते हैं।
7. वे ज्ञान को भी अपना मतलब सिद्ध करने के लिये इस्तेमाल करते हैं।
भगवान कहते हैं कि सकामी लोग वेदवाद रत होते हैं और स्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ मानते हैं। वे कहते हैं कि इससे बढ़ कर और कुछ भी नहीं। ये लोग अपने भोगेश्वर्य की प्राप्ति के लिये दिखलावे की और दूसरों को खुश करने वाली वाणी बोलते हैं।
नन्हीं! भगवान् कहते हैं, ‘ऐसे चाहनाओं से प्रेरित ज्ञान के व्यापारी, अविवेकी गण, जन्म मरण के कर्मफल ही पाते हैं।’
इसको ज़रा पुन: समझ!
1. वे लोग ज्ञान पढ़ कर पण्डितों की सी बातें करते हैं।
2. सच बोलते हुए डरते हैं, इस कारण मीठी मीठी लोकप्रिय और दूसरों के मनभावन् बातें करते हैं।
3. जहाँ पर उन्हें कोई आर्थिक लाभ नज़र आये, वहाँ पर झुक जाते हैं।
4. जहाँ पर उन्हें कोई मान दे, वहाँ पर झुक जाते हैं।
यानि, वे लोग तो ज्ञान को बेचते हैं।
नन्हीं! वे लोग तो राम को बेचते हैं।
क) वे लोग अपना जीवन यज्ञमय नहीं बनाते।
ख) वे मानो ज्ञान से व्यभिचार करते हैं।
ग) वे लोग ज्ञान के यथार्थ अर्थ को भी बदल देते हैं।
घ) अपने ही ज्ञान से वे स्वयं तुलना नहीं चाहते।
ङ) वे बाहर साधुता दिखा कर, दुनिया से छुपा कर अपनी ही कामनाओं को पूर्ण करते हैं।
च) वे लोग दूसरों को भरमा देने वाली वाणी बोलते हैं।
छ) वे लोग दूसरों को आकर्षित करने वाली वाणी बोलते हैं।
वे कहते हैं, ‘संसार में भोगैश्वर्य पूर्ण स्वर्ग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं।’ वे स्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ, प्राप्तव्य और जीवन का अन्तिम लक्ष्य मानते हैं। इस कारण वे पुष्पित वाणियाँ भी बोलते हैं और बहुत बड़े विस्तार वाली क्रियायें भी करते हैं। किन्तु इन सब क्रियाओं के पीछे निष्काम भाव नहीं होता, बल्कि स्वार्थ ही होता है। ये सब काज कर्म तथा पुष्पित वाणियाँ जीव को केवल जन्म मरण के चक्र से बांधती हैं।