Chapter 2 Shloka 18

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।१८।।

The Lord spoke again:

O Bharat !  All these bodies

which are the abode of That indestructible,

indescribable Atma, are perishable. Hence, fight.

Chapter 2 Shloka 18

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।१८।।

The Lord spoke again:

O Bharat! All these bodies which are the abode of That indestructible, indescribable Atma, are perishable. Hence, fight.

The Lord describes the Atma as Aprameya(अप्रमेय)

1. That which cannot be known;

2. That which is limitless;

3. That which is incomprehensible;

4. That which is indescribable;

5. Which cannot be manifested nor proved;

6. That which is unexplainable and beyond description;

7. Which is not an object that can be encompassed by the intellect.

Little one, the Lord addresses Arjuna as ‘Bharat’ in this shloka. You too are of the family of Bharat. Each citizen of this country is a member of the family of Bharat! Therefore this entire conversation between the Lord and Arjuna applies equally to you and indeed every resident of Bharat! So listen to every word carefully.

The Lord says, “O son of the family of Bharat! The jivatma that resides in these bodies cannot be known. However, O Indestructible one! It is the body that perishes, not the jivatma.”

“Therefore Arjuna,

1. Do not be anxious.

2. Do not worry about

­­–  who will win and who will lose,

­­–  who will live and who will die,

­­–  what will happen or not happen next,

­­–  whether family traditions will be lost.

The establishment of family tradition lies in the victory of good over evil. When evil wins then family tradition and sanctity are lost forever. Your own loss or gain are immaterial. Who will survive – even that need not be considered.

1. Confine yourself to your duty.

2. Do not be frightened by life’s conflicts.

3. Life and death are passing events.

4. Renounce your attachment with sat and fight.

5. Your friends and relations who are siding with the sinners are spreading evil in this world. It is your duty to fight against them.

6. It is the duty of the righteous to kill the evil doers!

Little Sadhak! The Lord’s injunction to Arjuna is also your dharma. You too must fearlessly engage yourself against falsehood, egoism, doers of wrong actions, the conceited and the vain. The righteous live for the good of others and do not fear death.

This is the practical utilisation of scriptural knowledge in life. This is also the proof of your love for the Truth.

a) That knowledge which alienates you from your duty is ignorance.

b) That knowledge which distances you from ordinary life is not knowledge of the Truth.

c) You have to renounce attachment to

­­–  the body,

­­–  the mind and

­­–  your preconceived concepts.

d) You must not renounce duty at any cost.

अध्याय २

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।१८।।

फिर से भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. हे भरत कुल के अर्जुन!

२. नित्य अविनाशी और अप्रमेय स्वरूप,

३. शरीर में रहने वाले जीवात्मा के,

४. ये सब शरीर नाशवान कहे गये हैं,

५. इसलिये तू युद्ध कर।

तत्व विस्तार :

भगवान ने आत्मा को अप्रमेय कहा। अप्रमेय का अर्थ है :

1. अज्ञेय, जो जाना न जा सके।

2. जो सीमित न हो सके।

3. जो अचिन्त्य तत्व हो।

4. जो अकथनीय तत्व हो।

5. जो प्रकट न किया जा सके।

6. जो अप्रतिम तत्व हो।

7. जो अज्ञात तथा अविदित तत्व हो।

8. जो प्रत्यक्ष प्रमाणित न किया जा सके।

9. जो बुद्धि का विषय न हो।

नन्हीं जान्! भगवान यहाँ अर्जुन को ‘भारत’ कह कर पुकारते हैं। तू भी तो भारत कुल की है। भारत देश के वासी भारत कुल के ही तो सदस्य हैं। यह सब कुछ तुझे उतना ही लागू होता है, जितना अर्जुन को।

सो ध्यान से सुन! भगवान कहते हैं, ‘हे भरत कुल की सन्तान अर्जुन! शरीरों में जो जीवात्मा बसता है, वह जाना नहीं जा सकता। किन्तु हे अविनाशी! नाश तो केवल शरीर का होता है, जीवात्मा का नाश नहीं होता। इसलिये :

1. तू व्याकुल न हो।

2. तू उठ! और इस शोक तथा क्षोभ का त्याग कर दे।

3. कौन जीतेगा और कौन हारेगा, यह सोच कर तू न घबरा।

4. कौन मरेगा या कौन जीता रहेगा, यह सोच कर तू न घबरा।

5. आगे क्या होगा, क्या नहीं होगा, तू इसकी भी चिन्ता न कर।

6. कुल धर्म या जाति धर्म नष्ट हो जायेगा, तू इस पर भी ध्यान न दे।

कुल धर्म की स्थापना देवत्व के जीतने में है। असुरों का राज्य रहा, तो कुल धर्म अवश्य ही नष्ट हो जायेगा। तब तो जाति धर्म नष्ट हो ही जायेगा। तुझे कुछ मिले न मिले, इसका भी ध्यान न कर। तुम्हारा कोई रहे न रहे, इसका भी ध्यान न कर।

हे अर्जुन!

1. तू अपना कर्तव्य करता जा।

2. तू जीवन के संग्राम से न घबरा।

3. तू जन्म मरण की परवाह न कर।

4. तू सत् से भी संग छोड़ दे।

5. नाते बन्धु, मित्रगण जो आततायियों से मिल गये हैं वह पाप वर्धक हैं, तू इनसे युद्ध कर।

6. अधर्म से भिड़ाव ही धर्मात्मा का केवल मात्र धर्म है।

नन्हीं साधिका! देख, जो भगवान ने कहा, वही तुम्हारा भी धर्म है। तन रहे या न भी रहे, असुरत्व, अहंकार, दम्भ, दर्प, दु:खदायी, निर्दयी, तथा दुराचारी दुर्वृत्तियों से तो युद्ध करना ही होगा।

साधक तथा सिद्धगण लोक हित के लिये जीते हैं। साधक, सिद्ध तथा पण्डित गण जीवन या मृत्यु से नहीं डरते। ज्ञान का वास्तविक विज्ञान रूप यह ही है। सत् प्रिय का स्वरूप इसी में निहित है।

क) वह ज्ञान, जो आपको कर्तव्य से दूर ले जाता है, अज्ञान है।

ख) वह ज्ञान, जो आपको सहज जीवन से दूर करवाता है, वह सत् ज्ञान नहीं।

ग) तुझे अपने तन से संग छोड़ना है।

घ) तुझे अपने मन से संग छोड़ना है।

ङ) तुझे अपनी मान्यताओं से संग छोड़ना है, कर्तव्य नहीं छोड़ने, इसका ध्यान रख।

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