Chapter 2 Shloka 19

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।१९।।

Further explaining the mysteries of the Atma, Bhagwan said:

He who thinks the Atma to be capable of killing,

and he who thinks that It is killed,

does not understand the Atma.

The Atma cannot be killed nor does It kill.

Chapter 2 Shloka 19

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।१९।।

Further explaining the mysteries of the Atma, Bhagwan said:

He who thinks the Atma to be capable of killing, and he who thinks that It is killed, does not understand the Atma. The Atma cannot be killed nor does It kill.

The Lord clarifies, “He who says that the Atma can kill, is uttering a falsehood.”

1. Obviously, such a one is applying the attributes of the body to the Atma.

2. Retaining the ego of doership, he is attributing the actions of his body to the Atma.

3. He does so because, in his ignorance, he identifies himself only with his body and considers the body’s activities his own.

4. He considers himself to be the bhokta – the enjoyer of all he partakes. In actual fact, the attitude of enjoyership is sheer illusion.

The intellect, too, is not the Atma or the true Self. The decisions of the intellect are not the resolutions of the Atma. Man’s identification with his body prompts him to claim them as such. Therefore if man is not the body but the Atma, then if the body has killed someone it is not the Atma that has killed; and if one says the Atma has been killed, this is also wrong, because:

1. The Atma is indestructible – it cannot be harmed.

2. It is eternal – it does not change.

3. It is unexpendable, and does not increase or decrease.

4. It is indivisible.

5. It does not die with the death of the body.

6. The body dies and remixes with the five elements from whence it arose.

7. When death occurs, the Atma discards the name and form it had assumed.

8. The Atma then ceases to live in that body.

9. With death, all the body’s qualities and personality cease to exist.

10. The connection of the person’s mind to the body’s relations and associates terminates at the moment of death. All actions of the body cease.

This does not mean that the Atma’s existence has also come to an end. It is only the body that takes birth and eventually dies. The Atma is the everlasting, indestructible Essence. O Sadhak, listen! When the body dies, it leaves behind a fragrance:

a) The follower of the dharma of Truth leaves behind a fragrance of Truth;

b) It is the fragrance of his meritorious acts and his virtuousness that remains in peoples’ hearts;

c) Those devoted to duty, who always upheld dharma, live on in peoples’ hearts forever. They leave behind them footprints of their beauty, inspiring others to follow their example.

Thus, attributes of sat, or the Truth, are everlasting. Such qualities have always received the highest adulation and always will. Yet we must remember that these qualities too pertain to the physical body of the being.

The Atma is not a doer, nor an enjoyer. Yet, It lends consciousness to the body, which then performs actions. The ego, the mind and the intellect claim false credit for those deeds and say, ‘I have done this.’ or ‘I have killed – see, he is dead.’

This is false pride and ego. This illusion is caused by identifying with the body through sheer ignorance.

अध्याय २

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।१९।।

आत्म तत्व के राज़ को भगवान अब और अधिक स्पष्ट करते हैं और कहते हैं:

शब्दार्थ :

हे अर्जुन!

१. जो इस (आत्मा को) मारने वाला मानता है,

२. और जो इसको मरा हुआ मानता है,

३. वे दोनों इस आत्मा को नहीं जानते,

४. न ही यह आत्मा मारता है और न ही यह मारा जाता है।

तत्व विस्तार :

भगवान कहते हैं, ‘जो कहता है कि यह आत्मा किसी को मारता है वह झूठी बात कहता है।’

1. वह इस तन के गुण आत्मा पर आरोपित करता है।

2. वह कर्तापन का अहंकार रखता हुआ अपने सारे तनो कर्म आत्मा पर मढ़ता है।

3. वह जीव आत्मा को न जानते हुए ही ऐसा कहता है।

4. वह अपने आपको तन के तद्रूप करके, तन के कर्म अपना कर ऐसा कहता है।

5. वह तन या इन्द्रियों के भोगों को अपनाकर, उनके तद्रूप होकर अपने आपको भोक्ता माने हुए है। वास्तव में भोक्तृत्व भाव मिथ्या है।

बुद्धि भी आत्मा नहीं है! बुद्धि के निर्णय आत्मा के नहीं होते, इन्हें अपनाना भी तनो तद्रूपता के कारण होता है। सो गर जीव तन ही नहीं, यानि आत्मा है, तब गर तन ने किसी को मारा भी हो तो यह आत्मा ने नहीं मारा होता; और जो कहता है कि आत्मा मरा हुआ है, वह भी गलत कहता है क्योंकि :

1. अक्षर की क्षति नहीं होती।

2. अविनाशी का नाश नहीं होता।

3. अव्यय कभी घटता बढ़ता नहीं।

4. अखण्ड का कभी खण्डन नहीं होता।

5. मृतक शव को देख कर कहना कि आत्मा की मृत्यु हो गई है, यह भूल है।

6. देही ने देह छोड़ दिया तो देही की नहीं, बल्कि तन की मृत्यु हुई है।

7. आत्मा ने जो नाम और रूप धारण किये थे, उन्हें छोड़ दिया।

8. जड़ पंचभूतों द्वारा रचित तन पुन: पंच तत्वों में मिल गया।

9. आत्मा ने तो मानो उसमें वास करना छोड़ दिया है।

10. तन के गुण ख़त्म हुए, तन का स्वभाव ख़त्म हुआ।

11. जिस पल तन की मृत्यु हो गई, तन के नाते, रिश्तों से मन का नाता ख़त्म हुआ। तनो कार्य कर्म सब ख़त्म हुए।

इसका अर्थ यह तो नहीं कि आत्मा ख़त्म हो गया। तन जन्मता है और तन ही मृत्यु को पाता है। आत्मा तो नित्य अविनाशी तत्व है। साधक सुन! तन की मृत्यु जिस पल हुई :

1. सत् धर्म अनुयायी के सत् की सुगन्ध ही बाकी रह गई।

2. उसके सुकृत् और सुकीर्ति की सुगन्ध ही बाकी रह गई।

3. कर्तव्य परायण, धर्मात्मा गण का लोगों के हृदय में वास होता है। लोग इनको याद करके इनके नक्शे कदम पर चलना चाहते हैं, इनके जैसे बनना चाहते हैं, वह इनके नाम की महिमा गाते हैं और इनके गुणों को नित्य सराहते हैं।

इस विधि सत् गुण नित्य ही होते हैं। ये गुण, अनादि काल से श्रेष्ठ ही हैं। आज भी वह श्रेष्ठ ही हैं, कल भी श्रेष्ठ ही रहेंगे। किन्तु ये गुण भी तन के होते हैं, आत्मा के नहीं। आत्मा तो अकर्ता है, आत्मा तो अभोक्ता है। आत्म सत्ता से तन चेतनता पाते हैं और अपने अपने काज में प्रवृत्त हो जाते हैं। मैं, मन और बुद्धि तो नाहक ही कहते हैं, ‘मैंने उसको मार दिया, वह देखो वह मारा गया।’

यह मिथ्या दम्भ है, यह मिथ्या अहंकार है, जड़ तन के साथ अज्ञानता के कारण तद्रूपता कर लेने से यह भ्रम हो जाता है।

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