अध्याय २
यावानर्थ उदपाने सर्वत: सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत:।।४६।।
भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त होने पर,
२. एक छोटे से जलाशय का जितना प्रयोजन रह जाता है,
३. अच्छी प्रकार आत्मा को जानने वाले के लिये,
४. सम्पूर्ण वेदों का उतना ही (प्रयोजन) रह जाता है।
तत्व विस्तार :
अब भगवान अर्जुन से कहते हैं कि जब तू आत्मवान् हो जायेगा, तब यह सम्पूर्ण जहान, जो त्रिगुणात्मक है, तुम्हारे लिये निरर्थक हो जायेगा। इसका उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार जिसने एक महान् जलाशय पा लिया हो, उसे छोटे छोटे जलाशयों से कोई प्रयोजन नहीं रहता, वैसे ही जो आत्मवान् पण्डित गण होते हैं, उन्हें वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।
यहाँ वेदों पर आक्षेप नहीं किया किन्तु कहा है कि आत्मवान् के लिये वह निरर्थक हो जाते हैं, क्योंकि वह ज्ञान की प्रतिमा स्वयं बन जाता है, फिर उसे ज्ञान की ज़रूरत नहीं रहती।
नन्हीं! बात तो ठीक ही है! तन के नाते ही :
1. जीव को सम्पूर्ण संसार के विषयों की आवश्यकता पड़ती है।
2. जीव के पास रुचि या अरुचि होती है।
3. जीव दु:ख सुख का उपभोग करता है।
4. जीव का मान या अपमान होता है।
5. जीव द्वन्द्वों में फंसता है और दु:खी सुखी होता है।
6. जीव दु:ख या कोई कमी मिटाने के लिये अन्य प्रकार का कुछ पठन करते हैं।
जो तनत्व भाव को त्याग कर आत्मवान् बन जाते हैं, वे तो तन की ही परवाह नहीं करते। वे तन की चाकरी नहीं करते। वे तन को स्थापित करना नहीं चाहते। वे तन के सुख दु:ख और मान अपमान की परवाह नहीं करते, उनके लिये किसी विषय की प्राप्ति या अप्राप्ति कोई अर्थ नहीं रखती। उनके लिये ज्ञान या अज्ञान कोई अर्थ नहीं रखता।
भई! वे ज्ञान पढ़ कर भी क्या करेंगे? ज्ञान तो उन्हीं के गुण गाता है। वे वेद पढ़ कर भी क्या करेंगे? वेद तो उनके जीवन की बताते हैं। वे तो वेदों की प्रतिमा आप हो जाते हैं। वे तो वेद रस सार का रूप आप ही होते हैं। उनका जीवन ही वेद है, उनका वचन ही ज्ञान है। उनका स्वरूप ही वेद होता है, उनका रूप ही वैदिक ज्ञान होता है।
वेद रूपा ज्ञान सत् पथ दिखला सकता है किन्तु सत् पथ पथिक को तो आत्मवान् बनना है। वेद रूपा ज्ञान अज्ञान मिटा सकता है किन्तु आत्मवान् तो स्वयं ज्ञान स्वरूप है। वेद रूपा ज्ञान चित्त निर्मल कर सकता है किन्तु निर्मलता की तुला तो आत्मवान् है। वह आत्मवान् वेद की प्रतिमा होते हैं। गर शास्त्र ज्ञान कभी समझ में न आये तो उस आत्मवान् की जीवनी को सामने रख लो, सब राज़ खुल जायेंगे।
भई! आत्मवान् के लिये वेद कोई अर्थ नहीं रखते क्योंकि वह स्वयं वेद है।