Chapter 2 Shloka 46

यावानर्थ उदपाने सर्वत: सम्प्लुतोदके।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत:।।४६।।

The Lord says:

The wise sage who has realised the Atma,

has as much utility for the Vedas,

as one has for a small reservoir

in a place that is surrounded by water.

Chapter 2 Shloka 46

यावानर्थ उदपाने सर्वत: सम्प्लुतोदके।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत:।।४६।।

The Lord says:

The wise sage who has realised the Atma, has as much utility for the Vedas, as one has for a small reservoir in a place that is surrounded by water.

The Lord says to Arjuna, “Once you become an Atmavaan, this entire world permeated with the three gunas will be meaningless for you. Just as a person who has the ocean is not interested in small ponds of water, so also a Realised Soul is no longer dependent upon the Vedas.”

Little one! This is no aspersion on the Vedas. Such a one is an embodiment of the knowledge of the Vedas, so that knowledge is an integral part of him and he has no further use for it.

Little one, consider! It is only from the point of view of the body that:

a) the individual requires all the objects of the world;

b) he dwells in likes and dislikes;

c) he tastes joy and sorrow;

d) he experiences fame and calumny;

e) he becomes enmeshed in duality;

f) he experiences any lack and studies to find a remedy.

The Atmavaan who has distanced himself from the body, serves the body no longer. He no longer seeks to establish the body, nor does he bother about joy and sorrow, recognition or insult, gain or loss, knowledge or ignorance.

Why would he accumulate knowledge when his very life embodies that knowledge? Why would he study the Vedas when those Vedas simply glorify his own life? He is in fact the embodiment of those Vedas. He is the manifest form of the essence of those Vedas. His life is the Vedas, his every word is knowledge.

The Vedas illumine the path of Truth, but the aspirant on the path of Truth has to become an Atmavaan. The Vedas can eradicate ignorance, but the Atmavaan is the embodiment of knowledge. The knowledge of the Vedas purifies the mind-stuff but the Atmavaan is himself the measuring scale of purity. His life illustrates the meaning of scriptural tenets. He is the Vedas himself!

अध्याय २

यावानर्थ उदपाने सर्वत: सम्प्लुतोदके।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत:।।४६।।

भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१.  सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त होने पर,

२. एक छोटे से जलाशय का जितना प्रयोजन रह जाता है,

३. अच्छी प्रकार आत्मा को जानने वाले के लिये,

४. सम्पूर्ण वेदों का उतना ही (प्रयोजन) रह जाता है।

तत्व विस्तार :

अब भगवान अर्जुन से कहते हैं कि जब तू आत्मवान् हो जायेगा, तब यह सम्पूर्ण जहान, जो त्रिगुणात्मक है, तुम्हारे लिये निरर्थक हो जायेगा। इसका उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार जिसने एक महान् जलाशय पा लिया हो, उसे छोटे छोटे जलाशयों से कोई प्रयोजन नहीं रहता, वैसे ही जो आत्मवान् पण्डित गण होते हैं, उन्हें वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।

यहाँ वेदों पर आक्षेप नहीं किया किन्तु कहा है कि आत्मवान् के लिये वह निरर्थक हो जाते हैं, क्योंकि वह ज्ञान की प्रतिमा स्वयं बन जाता है, फिर उसे ज्ञान की ज़रूरत नहीं रहती।

नन्हीं! बात तो ठीक ही है! तन के नाते ही :

1. जीव को सम्पूर्ण संसार के विषयों की आवश्यकता पड़ती है।

2. जीव के पास रुचि या अरुचि होती है।

3. जीव दु:ख सुख का उपभोग करता है।

4. जीव का मान या अपमान होता है।

5. जीव द्वन्द्वों में फंसता है और दु:खी सुखी होता है।

6. जीव दु:ख या कोई कमी मिटाने के लिये अन्य प्रकार का कुछ पठन करते हैं।

जो तनत्व भाव को त्याग कर आत्मवान् बन जाते हैं, वे तो तन की ही परवाह नहीं करते। वे तन की चाकरी नहीं करते। वे तन को स्थापित करना नहीं चाहते। वे तन के सुख दु:ख और मान अपमान की परवाह नहीं करते, उनके लिये किसी विषय की प्राप्ति या अप्राप्ति कोई अर्थ नहीं रखती। उनके लिये ज्ञान या अज्ञान कोई अर्थ नहीं रखता।

भई! वे ज्ञान पढ़ कर भी क्या करेंगे? ज्ञान तो उन्हीं के गुण गाता है। वे वेद पढ़ कर भी क्या करेंगे? वेद तो उनके जीवन की बताते हैं। वे तो वेदों की प्रतिमा आप हो जाते हैं। वे तो वेद रस सार का रूप आप ही होते हैं। उनका जीवन ही वेद है, उनका वचन ही ज्ञान है। उनका स्वरूप ही वेद होता है, उनका रूप ही वैदिक ज्ञान होता है।

वेद रूपा ज्ञान सत् पथ दिखला सकता है किन्तु सत् पथ पथिक को तो आत्मवान् बनना है। वेद रूपा ज्ञान अज्ञान मिटा सकता है किन्तु आत्मवान् तो स्वयं ज्ञान स्वरूप है। वेद रूपा ज्ञान चित्त निर्मल कर सकता है किन्तु निर्मलता की तुला तो आत्मवान् है। वह आत्मवान् वेद की प्रतिमा होते हैं। गर शास्त्र ज्ञान कभी समझ में न आये तो उस आत्मवान् की जीवनी को सामने रख लो, सब राज़ खुल जायेंगे।

भई! आत्मवान् के लिये वेद कोई अर्थ नहीं रखते क्योंकि वह स्वयं वेद है।

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