Chapter 2 Shloka 16

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:।।१६।।

The unreal has no existence,

and the real or the Truth never ceases to be;

this has been perceived

by all seers of the Truth.

Chapter 2 Shloka 16

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:।।१६।।

The unreal has no existence, and the real or the Truth never ceases to be; this has been perceived by all seers of the Truth.

The Unreal

The Lord says that the unreal has no existence. The unreal is that:

a) which has no entity but seems real;

b) which is improper, evil or sinful;

c) in which tamoguna or rajoguna predominate;

d) which is based on false principles and illusion;

e) which may be apparently real but is transient;

f) whose influence or effect is insignificant, powerless.

Listen little one, pleasure and pain, the idea ‘I am the body’, ego, anger, worldly desire, cowardice, greed, ‘me and mine’, pride in our qualities and intellectual state and even the complexes formed by concealing one’s lacunae are all based on the unreal. Concepts, influences, resolves, mental perplexities – these are all temporary and unreal as they are dependent on our own mental impurity and conflict. The unreal is opposed to satoguna and supports rajoguna and tamoguna. It increases desire for wealth and lust and leads to egoism, pride, temper and other evils.

The Real

Then what is Real? Take the opposite of the words that describe the unreal and then you will understand what is real. It can be described as:

1. That which pervades this whole existence;

2. Knowledge of the Absolute;

3. The Real is permanent in nature, noble and righteous;

4. That which is based on eternal principles;

5. That which is predominantly based in satoguna.

Those abiding in satoguna are:

a) learned and knowledgeable;

b) intellectuals – not carried away by their mind;

c) of exceptional conduct and dutiful;

d) those who serve with selflessness and act for universal welfare as their dharma.

Divine qualities predominate in the lives of such people. They possess the knowledge of the qualities of nature and are attached to satoguna, truth and light.

The Lord says, Truth or Reality is without end and falsehood or what is untrue has no entity. It is worthless and based on illusion. Therefore, it has no value nor is it of any use. It is bound to meet its end. False conduct neither earns any respect nor fruits of any consequence. Contrary to this, conduct supported by Truth will always reap a harvest of distinction and prestige. The difference between the two has been seen by the Seers of Truth.

The Lord says here that:

1. The Atma is beyond both the real and the unreal.

2. The Pragyavaan or one whose intellect is established in equanimity, remains uninfluenced by both.

3. It is necessary to have knowledge of both vidya and avidya in order to discern the Supreme.

4. The gunatit must remain uninfluenced by the three basic qualities of sattva, rajas and tamas.

5. The knowledgeable Pandit is a knower of the Atma and is unaffected by any quality of the body.

6. The Pandit who thus abides in the Self transcends the idea ‘I am the body’ and knows the difference between the real and the unreal.

Little one, both sat and asat are gunas or qualities. These qualities flow through the body and the individual becomes attached to them as such. Both these qualities cease to hold any significance for the Seer who does not identify with his body.

Now understand further.

As long as the individual considers the body his own, he claims the qualities that inhere in it. In order to establish the body he becomes its slave. Thus does he spend his entire life. What does he not do to fulfil the body’s desires! However, when the realisation dawns that he is not the body, he forgets the body. This self forgetfulness is the state of the Atmavaan or one who abides in the Atma. Since he no longer identifies with his own body, he identifies with the needs of the person before him. It is extremely difficult to understand such a one since his deeds are entirely dependent on the mental status, gross need and situation of those who stay with him or seek his company.

1. Such a one does not necessarily wear ochre robes;

2. He is not bound by gunas;

3. He is not restricted by any prescribed code of conduct;

4. He is neither involved in action nor does he abstain from it;

5. No work is too high or too low for him;

6. He is compassionate, he is forgiveness personified;

7. His knowledge is not based only on the Scriptures, but on his practical application of those Scriptural tenets;

8. His actions may raise doubts even in the petty minds of sadhus who seek to measure him by their formalised concepts of goodness. Unmindful of what others think of him, such a one silently and imperceptibly leads others beyond their own restrictive concepts to higher realms of understanding and action, thus ensuring their spiritual wellbeing.

The Lord, too, is leading Arjuna towards war, for that is the action that is conducive to his spiritual welfare.

Thus the wise ones, the Pandits, who know the essence of Truth, have transcended both the real and the unreal.

 

अध्याय २

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:।।१६।।

भगवान कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. असत् का तो भाव नहीं होता,

२. और सत् का अभाव नहीं होता,

३. इन दोनों का भी अन्तर

४. तत्वदर्शियों द्वारा देखा गया है।

तत्व विस्तार :

भगवान कहते हैं कि असत् का भाव नहीं होता।

असत्’ वह है :

1. जिसका अस्तित्व न हो;

2. जो सत्ता हीन हो;

3. जो अनुचित हो;

4. जो दुष्ट या पापी हो;

5. जो तमोगुण या रजोगुण प्रधान हो;

6. जो मिथ्यात्व पर आधारित हो;

7. जो मिथ्या सिद्धान्तों पर आधारित हो;

8. जो सत्ता रहित हो, पर वास्तविक सा भासता हो;

9. जो नित्य नहीं रहता;

10. जिसका प्रभाव निरर्थक हो।

देख नन्हीं! सुख, दु:ख, तनत्व भाव, अहंकार, काम, क्रोध, भीरुता, लोभ इत्यादि मनो विकार, ‘मम’ ‘मेरा’ कहना, अपनी बुद्धि और गुणों पर गुमान और अपनी न्यूनता छिपाने के लिये चित्त में जो ग्रन्थियाँ बन जाती हैं, ये सब असत् पर आधारित हैं।

मान्यतायें, प्रभाव, संकल्प इत्यादि मनोग्रन्थियाँ सब ही असत् हैं, क्योंकि यह सब जीव के अपने ही मन के द्वन्द्व पूर्ण विकारों पर आश्रित हैं। जीवन में असत् सतोगुण विरोधी रजोगुण तथा तमोगुण का वर्धन करता है। यानि लोभ तथा कामना, अज्ञान तथा मोह, आसुरी सम्पदा, अहंकार, दम्भ, दर्प और क्रोध इत्यादि का वर्धन करता है।

अब सत् को समझ ले :

सत् जानने के लिये असत् के सम्पूर्ण शब्दों का इस्तेमाल कर लो, तो समझ आ जायेगा कि असत् से उलटा सत् है। फिर भी नन्हीं! सत् को यूँ समझ लो कि :

क) जो वस्तुत: विद्यमान है, वह सत् है।

ख) यानि वास्तविकता सत् है।

ग) परम का ज्ञान सत् है।

घ) सत् उसे कहते हैं जो नित्य भी हो, श्रेष्ठ भी हो और उचित भी हो।

ङ) जो नित्य सिद्धान्तों पर आधारित हो, उसे सत् कहते हैं।

च) यथार्थता को सत् कहते हैं।

छ) सतोगुण प्रधान को सत् कहते हैं।

देख नन्हीं! सतपूर्ण लोग :

1. ज्ञानवान् तथा विद्वान् होते हैं।

2. मनोप्रधान नहीं होते बल्कि बुद्धि प्रधान होते हैं।

3. विशिष्ट आचरण पूर्ण होते हैं।

4. कर्तव्य परायण होते हैं।

5. निष्काम भाव से लोगों का कार्य करना ही अपना धर्म मानते हैं।

6. सब लोगों के हितकर कार्य करते हैं।

इनके जीवन में दैवी गुणों की प्रधानता होती है। क्योंकि वे लोग सत् परायण होते हैं इसलिये वे जीवन में सत्गुणों का ही प्रयोग करते हैं। इन्हें गुणों का ज्ञान और प्रकाश तथा सतोगुण से संग होता है।

भगवान कहते हैं, कि ‘सत् का अभाव नहीं होता और असत् का भाव नहीं होता।’ अब भाव का अर्थ समझ ले।

भाव का अर्थ है :

अस्तित्व, अभिप्राय या स्पष्ट अर्थ, यथार्थता, निहित तत्व सार, अवस्था, स्थिति या असलियत तथा सहज लग्न।

भगवान कहते हैं असत् का तो भाव ही नहीं होता; असत् की कोई कीमत नहीं होती। असत् तो अवास्तविकता पर आधारित है। इसलिये जहान में उसका वास्तविक मूल्य तथा लाभ कुछ भी नहीं होगा। असत् तो असत् ही है, उसका अभाव निश्चित ही है। असत्मय व्यवहार सत्य नहीं होता, यानि नित्य आदरणीय तथा यथार्थ नहीं होता। इसके विपरीत सत् पूर्ण व्यवहार नित्य ही मान, प्रतिष्ठा तथा श्रेष्ठता को उत्पन्न तथा उसका वर्धन करने वाला होता है।

अब आगे ध्यान से समझ नन्हीं! भगवान कहते हैं इन दोनों का भी अन्तर तत्वदर्शियों द्वारा देखा गया है।

1. आत्मा सत् और असत् से परे है।

2. प्रज्ञावान् सत् और असत् से नित्य अप्रभावित रहते हैं।

3. परम को जानने के लिये विद्या और अविद्या, दोनों का विवेक ज़रूरी है।

4. गुणातीत होने के लिये सत्त्व, रज तथा तमोगुण से नित्य अप्रभावित रहना अनिवार्य है।

5. ज्ञानवान् पण्डितगण आत्मवान् होते हैं। वे तन के किसी भी गुण से प्रभावित नहीं होते।

6. आत्मवान् पण्डितगण तनत्व भाव से परे होते हैं; उन्होंने सत् और असत् के अन्तर को देखा है।

नन्हीं! सत् भी एक गुण है और असत् भी एक गुण है। ये गुण जीव तन नाते अपनाता है और ये गुण तन राही ही बहते हैं। जो जीव तन को अपनाता ही नहीं, उसके लिये सत् और असत् कोई महत्व ही नहीं रखते।

अब आगे समझ, अब तनिक सूक्ष्म बात समझाते हैं। जब तक जीव तन को अपनाता है, वह तन के गुणों को भी अपनाता है और तन के ही किसी काज अर्थ तन का नौकर बना रहता है। तन को स्थापित करने के लिये जीव सारा जीवन लगा देता है। तन की रुचि पूरी करने के लिये वह जीवन भर क्या कुछ नहीं करता? किन्तु जब वह अपने आपको तन मानता ही नहीं, और ‘मैं तन नहीं हूँ’ इसमें पूर्ण परिपक्वता पा जाता है, तो वह तन को भूल ही जाता है। अपनी विस्मृति ही, आत्मवान् की स्थिति है। तब तो जो सामने आ जाये, वह उसके तद्रूप हो जाता है। उसको समझना अतीव कठिन हो जाता है, क्योंकि उसका हर काज कर्म उसके सहवासियों तथा सहयोगियों पर आश्रित होता है और उसके सम्पर्क में आने वालों की मानसिक तथा जीवन की व्यवस्था पर आधारित होता है। ऐसा आत्मवान :

1. न साधुओं वाले वस्त्र पहनता है।

2. न किसी गुण से बंधा होता है।

3. न ही किसी कार्य प्रणाली या प्रक्रिया से बंधा होता है।

4. न ही वह प्रवृत्ति से आसक्त होता है।

5. न ही निवृत्ति से आसक्त होता है।

6. कोई भी काम उसके लिये श्रेष्ठ नहीं होता।

7. कोई भी काम उसके लिये न्यून नहीं होता।

8. वह करुणापूर्ण, क्षमा की मूर्ति होता है।

9. उसका ज्ञान भी शास्त्रों पर आधारित नहीं होता। परन्तु उसका जीवन मानो शास्त्रों की सप्राण व्याख्या है।

10. देखने में उसके व्यक्तिगत कर्मों पर साधुओं को ही संशय हो जाता है क्योंकि वह किसी भी साधुता की कार्यबद्ध पद्धति का अनुसरण नहीं करता। वह तो जिस वातावरण में रहता है, उसी वातावरण के लोगों की मान्यताओं का भंजन न करते हुए, उन लोगों से काज करवाते हुए उन लोगों का ही कल्याण करता है।

अर्जुन को भी तो भगवान युद्ध करने के लिये कह रहे हैं।

ऐसे लोग, या कह लो, ऐसे तत्व को जानने वाले पण्डित गण सत् और असत् से परे होते हैं।

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