अध्याय १०
अथ दशमोऽध्याय:
श्री भगवानुवाच
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वच:।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।१।।
फिर से कृपासागर भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन! ले पुन: मेरे वचन को सुन,
२. जो मैं अति प्रेम करने वाले तुझको, (तेरे) हित की चाहना से कहूँगा।
तत्व विस्तार :
भगवान यहाँ अर्जुन की स्थिति बता रहे हैं। देख नन्हीं! भगवान अपने प्रेम करने वाले अर्जुन से कहते हैं :
‘हे अर्जुन! तू मुझे बहुत प्यार करता है न! तू मेरी शरण पड़ा है, तूने मुझे गुरु माना है और तू मेरा शिष्य बना है। तू मेरे शरणापन्न होकर मुझसे सब पूछ रहा है।’
ऐसे के हित के लिये देखो, भगवान
1. कितना ज्ञान स्वयं ही दे देते हैं।
2. बार बार वही बात समझाते हैं।
3. किसी तरह उनका भक्त समझ जाये, इसलिये यत्न करते हैं।
4. विविध विधि, विविध शब्दों में समझा रहे हैं उसी परम तत्व को, ताकि अर्जुन उसे समझ सके।
भगवान कहते हैं, ‘तेरे लिए पुन: कहता हूँ, तेरे ही हित की बात कहता हूँ। शायद तू इसमें अपना हित जान कर, मेरी बात मान ले!’