Chapter 2 Shloka 57

य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।५७।।

Free from attachment at all times, he is

unaffected by good or bad – neither rejoicing in it

nor repulsing it, he is of a steady intellect.

Chapter 2 Shloka 57

य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।५७।।

Now Bhagwan further describes the qualities of the one who is ever established in samadhi:

Free from attachment at all times, he is unaffected by good or bad – neither rejoicing in it nor repulsing it, he is of a steady intellect.

He who is not excessively overjoyed or attached to the pleasant and who does not repel or hate the unpleasant, is a Sthit Pragya.

Shubh (शुभ)Ashubh (अशुभ)

Shubh or ‘good’ is that which is conducive to one’s welfare; that which is auspicious and which brings prosperity and renown.

What is opposed to all these is ashubh -‘bad’ or inauspicious.

The Sthit Pragya views both these with indifference. One established in the Self experiences the best and the worst in life with equal detachment. He does not swell with pride upon receiving the ‘good’ nor does he fear its loss.

He does not repel the ashubh – that which is ‘bad’, the unpleasant, that which is unbeneficial, inauspicious, impure, or sinful. He is not repulsed by those people or situations which are ashubh. He accepts each situation with detachment. He does not seek to escape an unpleasant situation nor is he anxious to covet and possess that which he finds pleasant.

He is Anabhisneha (अनभिस्नेह)

a) He is devoid of attachment;

b) He has no hopes or expectations;

c) He has no affections.

Little one, such an attitude is possible only when one transcends the body idea. Bear in mind here that the Lord is telling us the characteristics of the Sthit Pragya, saying that such a detached one possesses a stable and steady intellect.

Here the Lord is describing the ordinary life of one who is absorbed in samadhi. He is not bound by likes or dislikes- no matter what comes his way. He serves whosoever comes to him impartially and in a detached manner. He retains his equanimity and impartiality even whilst performing all actions and interacting with all. This is the proof of his elevated state.

अध्याय २

: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।५७।।

स्थित प्रज्ञ, नित्य समाधि स्थित की स्थिति बताते हुए भगवान कहते हैं, हे अर्जुन!

शब्दार्थ :

१. जो सर्वत्र स्नेह रहित हुआ,

२. शुभ और अशुभ को प्राप्त होकर,

३. न हर्ष करता है, न द्वेष करता है,

४. उसकी बुद्धि स्थिर है।

तत्व विस्तार :

जिसे, यदि शुभ मिल जाये तो वह महा मुदित होकर उससे अनुराग नहीं करता, यदि अशुभ मिल जाये तो वह द्वेष पूर्ण होकर उससे घृणा रूपा संग नहीं करता, वह स्थित प्रज्ञ होता है।

शुभ :

नन्हीं! प्रथम शुभ को समझ लो!

शुभ का अर्थ है :

1. जो कल्याण कारक हो।

2. जो मंगल कारक हो।

3. जो समृद्धि देने वाला हो।

जीवन में शुभ वह होगा, जो आपके सौभाग्य को प्रदुर करे तथा आपको प्रतिष्ठा देने वाला हो।

अशुभ :

अब अशुभ समझ ले! शुभ के लिये जो कुछ भी कहा, उसका विपरीत अशुभ कहलाता है।

भगवान कहते हैं स्थित प्रज्ञ को जीवन में शुभ मिल जाये या अशुभ मिल जाये, वह दोनों को जीवन में बराबर समझता है। शुभ पाकर वह :

क) इतराता नहीं।

ख) अभिमान पूर्ण नहीं हो जाता।

ग) शुभ से संग नहीं कर लेता।

घ) जीवन में शुभ से बिछुड़ने से डरता नहीं, ‘अशुभ’ जिसे वह :

1. अरुचिकर जानता है,

2. अकल्याणकारक जानता है,

3. अमंगलकारक जानता है,

4. मलिन तथा अपावन भी जानता है,

5. पाप पूर्ण तथा दुर्भाग्य को उत्पन्न करने वाला भी जानता है,

वह स्थित प्रज्ञ ऐसे अशुभ गुणों से पूर्ण लोगों अथवा परिस्थितियों से भी द्वेष नहीं करता।

उसे जैसा भी और जो भी मिल जाये, वह उसे उदासीन भाव से स्वीकार करता है। न वह किसी भी परिस्थिति से भागना चाहता है और न ही वह किसी भी परिस्थिति से संग करके उसे बनाये रखना चाहता है। वह तो पूर्णतय: ‘अनभिस्नेह‘ है।

यानि :

1. आसक्ति रहित है।

2. अभिलाषा रहित है।

3. अनुराग रहित है।

नन्हीं! यह तब ही हो सकता है यदि जीव अपने तनत्व भाव से परे हो जाये। याद रहे, यहाँ स्थित प्रज्ञ, नित्य समाधिस्थ के चिह्न बता रहे हैं। भगवान कहते हैं कि ऐसे निरासक्त की बुद्धि ठहरी हुई होती है।

मेरी नन्हीं जान्! यह उस समाधिस्थ के जीवन की सहज स्थिति बता रहे हैं। जीवन में उन्हें जो और जैसा भी मिल जाये, वे राग द्वेष में नहीं बंध जाते। वे तो जो जैसा आये, उसके लिये जो उचित हो, निरपेक्ष भाव से वैसा ही कर देते हैं। वे चलते फिरते, सब काम करते हुए भी सम भाव में ही रहते हैं। उनके जीवन में ही यह प्रमाण मिलता है।

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