अर्चना
(परम पूज्य माँ के मुखारविन्द से प्रवाहित गीता के प्रति भाव)
गर तेरा पूजन इसमें हो, नित गीता का अध्ययन करूँ।
अब इतनी कृपा करदे श्याम, बिन पाठ किये उठ न सकूँ।।१।।
प्रतिदिन उठके श्याम मेरे, मैं तुमसे बातें किया करूँ।
हर पल ही बहु प्रेम से, तव शब्द गान ही किया करूँ।।२।।
श्याम श्याम कह कह कर, हर पल पिया मैं जिया करूँ।
गीता अमृत कानों से, श्रवण मैं अब किया करूँ।।३।।
वाणी से गीता बहे, मन गीता में ही रंगा रहे।
आशिष इतनी दे पिया, मन तेरे भाव में रंगा रहे।।४।।
पूजन न जानूँ मन्त्र न जानूँ, किस विध तव आवाहन करूँ।
इतना बता किस विध हे श्याम, तुझे पठन पूर्व बुलाया करूँ।।५।।
गर संग में तू बैठेगा श्याम, तो ही तो पढ़ पाऊँगी।
निज रंग में मुझको रंग पिया, तो गीता रंगी हो जाऊँगी।।६।।
कृतज्ञता सुमन
हे करुणामयी दिव्य माँ! मैं तो एक अनजान बालिका थी, आपने अपने वात्सल्यमय, पावन आंचल में मुझे पनाह दी। हे सम्पूर्ण शास्त्रों की सजीव प्रतिमा! अपार कृपा करके आपने मेरे जीवन को अपनी दिव्यता की आग़ोश में ले लिया। मैं तो राहें भूली थी, आपने जीना सिखाया तथा सांसारिक क्षणिकता में लिप्त मुझको शाश्वत आनन्द की राह दिखाई। मैं तो अयोग्य थी, किन्तु मुझ अपात्र को आपने परम योग की महिमा का दिव्य विस्तार ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ उपहार रूप में दिया।
आज आपके इस अनुग्रहपूर्ण शुभाशीर्वाद को विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में, संसार में आपके सभी शिशुओं के साथ बाँटती हूँ। मैं आशा करती हूँ कि यह पावन ग्रन्थ, जिसने मुझे जीवन रहस्य प्रदान किया, उनके जीवन को भी व्यावहारिक स्तर पर सत्य, ज्ञान और अनन्त आनन्द के प्रकाश से आलोकित कर देगा।
– आभा (नन्हीं)
सजीव गीता की आग़ोश में
‘श्रीमद्भगवद्गीता’ जीने की विधि का एक यथार्थ दर्पण है, परन्तु इसमें निहित रहस्यों को समझने के लिए निरन्तर अन्वेषण अनिवार्य है। इस पावन ग्रन्थ पर अनेकों परिभाषाये प्राप्त हैं, परन्तु केवल दिव्य प्रेम के उपहार स्वरूप प्राप्त यह रचना वास्तव में विलक्षण है। जो एक तुच्छ बालिका को उभारने के लिये बह निकली। यह अनुपम ग्रंथ, जो आप अपने हाथ में लिये हुए हैं, उस निष्काम प्रेम का परिणाम है जो रचयिता की उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति तथा असीस आत्मिक पराकाष्ठा होने पर भी एक अबोध बालिका के उत्थान अर्थ, उसके आंतर को प्रकाशित करने के लिये विस्तृत किया गया। पहले शिशुवत् अथवा पुन: जिज्ञासुवत्, जब जब मैं इसकी गहराईयों तक पहुँची तो वहीं निमग्न हो गई। मुझे विश्वास है कि यह ज्ञान सिन्धु आपको भी उसी प्रकार अपने में समेट लेगा।
मेरा परम सौभाग्य तो देखो! मैं पूज्य माँ के प्रेममय आग़ोश में रहती आई हूँ और इस अद्वितीय उपहार का अखण्ड दिव्य प्रवाह मैंने प्रत्यक्ष देखा है। इस रचना में बार बार सम्बोधित किये जाने वाली परम भाग्यशालिनी ‘नन्हूँ’ मैं ही हूँ। मैं केवल आयु में ही नहीं बल्कि ज्ञान के दृष्टिकोण से भी अति न्यून थी। अब आपके मन में यह प्रश्न अवश्य उठ रहा होगा, ‘फिर यह अपूर्व विस्तार तुम्हारे लिये क्यों बहा?’ मैं इसका पूर्ण सन्दर्भ आपके सम्मुख रखती हूँ।
पूज्य माँ कई बार दिल्ली में हमारे घर आकर उसे पवित्र करते थे। तब मैं भी उनके सुन्दर परिवार ‘अर्पणा आश्रम’ में उनके पास आया करती थी। इस प्रेममय मन्दिर को आज मैं अपना घर कहने का सौभाग्य पाये हुए हूँ। शुरु से ही मैं उनकी छोटी से छोटी सेवा करने में भी परम आनन्द पाती। एक दिन अपनी स्वाभाविक करुणापूर्ण विनम्रता से माँ ने कहा, ‘नन्हीं! तुमने इतनी देर तक मेरी सेवा की है, मैं तुम्हारे लिये क्या कर सकती हूँ?’ कैसा अनुपम भाव है कि वह विशाल हृदयी स्वयं ऋणी बने, ताकि अपात्र ग्रहणकर्त्ता पर कृतज्ञता का तनिक भी बोझ न पड़े। आन्तर में अनन्त ज्ञान सिन्धु समेटे हैं जो, मैं उनसे और माँग भी क्या सकती थी? संकोचयुक्त होकर मैंने पूछा ‘क्या आप मुझे सविस्तार गीता समझायेंगे?’ वह मुसकरा दिये और इसके उपरांत जो दिव्य प्रेम व ज्ञान उनके मुखारविन्द से प्रवाहित हुआ, वह आपके सम्मुख है। मुझ अपात्र का हृदय कृतज्ञता का एक कासा बन गया जिसमें मैंने भगवान की इस अपार करुणा को ग्रहण किया।
मेरी जननी, श्रीमती कमला भण्डारी (जिन्हें पूज्य माँ ने यहाँ अनेक बार सम्बोधित किया है) ने भी अपने अन्वेषक परिप्रश्नों द्वारा इस रचना को विस्तृत करने में बड़ा योगदान दिया।
व्यावहारिक जीवन में गीता का महत्त्व
यह दिव्य ग्रंथ एक सहस्रमुखी दर्पण की भाँति है जो गुह्यतम ज्ञान के विभिन्न पहलुओं को, जिज्ञासु की बुद्धि, सामर्थ्य और क्षमता के अनुकूल प्रतिबिम्बित करता है। एक अल्पज्ञ के लिये यह अध्यात्म के प्रथम सोपान पर प्रकाश डालता है, एक ज्ञानी के लिए एक अमूल्य शोध कार्य है, एक संन्यासी के लिये यह वैराग्य की परिसीमा है तथा एक संसारी के लिये यह मानुषी सम्बन्धों में अपूर्व सहायक है। यह सहज ज्ञान वैज्ञानिक के लिये तुला भी है तथा प्रत्येक जिज्ञासु के लिये पथ प्रदर्शक भी है। संसार के विविध तापों से मुक्ति पाने के लिये यह एक अमोघ औषध है।
गीता-सप्राण रूप
गीता में भगवान ने कहा है कि, ‘यह पुरातन योग संसार से लुप्त हो गया था’ (४/२,३)। आज पूज्य माँ की कृपा से यह स्पष्ट हुआ कि इस ज्ञान को दिनचर्या में न उतारना अथवा इसका सही उपयोग न करना ही इसका लुप्त हो जाना है। यही कारण है कि यह शब्द ज्ञान मात्र रहकर शीघ्र ही भूल जाता है।
आज पूज्य माँ की अथाह करुणा और जीवन राही गीता शास्त्र मेरे लिये सप्राण हो उठा है। इसमें निहित अमूल्य सिद्धान्तों को दिनचर्या में उतारने के लिये पूज्य माँ ने बहुत सरल भाषा में भागवद् आदेशों का विस्तार किया है। एक अति दुर्गम दुर्ग की भाँति प्रतीत होने वाला आध्यात्मिक ज्ञान आज सहज दैनिक जीवन की अनिवार्य सत्यता प्रतीत होता है। क्योंकि मैं पूर्णतया अनभिज्ञ थी, इस कारण मेरे साथ तद्रूप होकर पूज्य माँ ने प्रत्येक न्यूनतम रहस्य का भी विस्तार किया और इस महान् रचना के परिपूर्ण होने पर इसे सप्रेम निष्कामता से मुझे भेंट कर दिया। यही उनकी पूर्ण तद्रूपता, उनकी उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति, परम ज्ञान और परम मौन का परिचायक है। इस नितान्त विरक्ति का प्रमाण उनके जीवन में बार बार मिलता है। प्रत्येक जिज्ञासु की माँग तथा स्थिति के अनुकूल ही उनके मुखारविन्द से अनेकों शास्त्रों की व्याख्या हुई। वेदान्त की चरम सीमा तथा उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का विस्तार सहज, सरल काव्य में पावनी गंगा के समान उनके मुख से प्रवाहित हुआ; परन्तु इन सम्पूर्ण ग्रंथों पर अपना कोई अधिकार न रखते हुए पूज्य माँ ने इन्हें प्रश्नकर्त्ता को इस प्रकार सौंप दिया, जैसे इन सबमें उनकी अपनी कोई करनी ही न हो।
नवीन रचनात्मक विधि-साधक के लिये अनिवार्य
यदि आरम्भ में आपको कहीं दोहराव लगे भी, तो आप स्वयं जान लेंगे कि यह रचनात्मक विधि न केवल सार्थक है अपितु अनिवार्य है। साधक की पुरानी मान्यताओं को भंजित करके यह तत्व ज्ञान को उसकी स्मृति में अंकित करती है। वास्तव में गीता की इस अभिव्यक्ति में यही विलक्षणता है। कभी प्यार से, कभी झकझोर कर और कभी डांटकर भी, यह एक माँ की भांति साधक शिशु का कर थामे उसे अध्यात्म तत्व के चरम शिखर की ओर ले जा रही है।
भागवत् आदेश की प्रणाली को समझने के लिये इसे चिह्नित करने की प्रणाली का भी अपना ही महत्त्व है। साधक को उत्थान की ओर ले जाने वाली यह मानो एक वैज्ञानिक सीढ़ी है। अनन्य भक्ति युक्त साधक के लिये इस राही सत्य को देखना और समझना अति सुगम हो जाता है।
यह विस्तृत रचना पूज्य माँ ने तीन मास के अल्प समय में अपने हाथों से लिखी। उनके निहित ज्ञान स्रोत्, परम मौन, निजी अनुभव तथा स्थिति का यही प्रमाण है, जिसके लिये भगवान ने स्यवं कहा है, ‘जहाँ पहुँचकर प्राणी पुन: मोह को प्राप्त नहीं होता।’ (२/७२)
गीता आदेश है, उपदेश नहीं
पूज्य माँ सदा कहते हैं कि इस शास्त्र को भगवान का आदेश जानकर ग्रहण करना चाहिये। जिस प्रकार एक आज्ञाकारी पुत्र अपने पिता की वसीयत को वास्तविकता में परिणित करता है, उसी प्रकार अपने परम पिता के आदेश ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ को हमें इस धरती पर अपने जीवन राही अंकित करना चाहिये।
साकार गीता के साथ मेरा जीवन
कितने ही जन्मों के उपरान्त ऐसी सजीव शास्त्र प्रतिमा के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है। अपात्र होते हुए भी मुझे यह दिव्य अवसर प्राप्त है। 1973 में जब परम पूज्य माँ ने मुझे गीता रूप यह अमूल्य उपहार दिया, तब मैं नहीं जानती थी कि गीता के इस दिव्य ज्ञान को मैं जीवन पर्यन्त पूज्य माँ के जीवन में प्रमाणित होता देख पाऊँगी। उनके अति साधारण रूप में अलौकिक दिव्यता का प्राकट्य मैंने देखा। जहाँ सच्चे जिज्ञासु के लिये ज्ञान के गुह्यतम विषय कभी स्पष्ट, सरल, स्वत: स्फुरित काव्य और कभी गद्य में विस्तार पाते हैं, जहाँ न्यूनतम कर्म भी गम्भीर आध्यात्मिकता के परिचायक हैं, जहाँ अनन्त प्रेम का स्रोत् सबके लिये समान रूप से बहता है, उनके जीवन में मैं कर्म, ज्ञान और भक्ति का पूर्ण समन्वय पाती हूँ। वैराग्य, गुणातीतता, स्थितप्रज्ञता इत्यादि केवल शाब्दिक विषय न रहकर, करुणामयी दिव्य माँ के जीवन में अनुभवगम्य और दर्शनीय यथार्थता तथा सत्यता बन गये हैं। जीवन में इन सब अवस्थाओं को दर्शाते हुए भी वह इन सबसे परे, परम सच्चिदानन्द धाम में निवास करती हैं!
कृतज्ञतापूर्ण हृदय से, पूर्ण आनन्द की पारसमणि, ‘श्रीमदभगवद्गीता’, जिस राही भगवान के चरणों में बैठकर मैंने जीने का वास्तविक रहस्य पाया है, मैं आप सबको समर्पित करती हूँ।
– आभा भण्डारी (नन्हीं)