Chapter 14 Shloka 1

श्री भगवानुवाच

परं भूय: प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।

यज्ज्ञात्वा मुनय: सर्वे परां सिद्धिमितो गता:।।१।।

The Lord says to Arjuna:

I shall again repeat for you the

highest wisdom amongst all knowledge,

acquiring which all sages have

attained supreme perfection.

Chapter 14 Shloka 1

श्री भगवानुवाच

परं भूय: प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।

यज्ज्ञात्वा मुनय: सर्वे परां सिद्धिमितो गता:।।१।।

The Lord says to Arjuna:

I shall again repeat for you the highest wisdom amongst all knowledge, acquiring which all sages have attained supreme perfection.

The Lord’s Compassion

Witness the Lord’s compassion!

a) He employs varied means to impart knowledge;

b) He expands on that knowledge with such great love;

c) He explains the same point tirelessly, again and again;

d) He clarifies that knowledge unasked, innumerable times;

­­–  so that Arjuna may understand.

­­–  so that His friend may comprehend it.

­­–  so that His friend Arjuna, who had sought refuge in Him, may be enlightened somehow.

­­–  so that he may somehow understand Him and His intrinsic Essence.

­­–  so that he may understand His life and His basic core.

­­–  so that he may somehow become the embodiment of bliss.

e) Therefore the Lord explains the Supreme knowledge to Arjuna  in several ways.

He now says, “I am giving you this knowledge, knowing which great sages have attained perfection.”

Who is a sage?

1. One who has mastered his mind.

2. One who has transcended the qualities.

3. One who rules over his mind.

4. One who has fully incorporated Truth into his life.

5. One who knows the gunas and is not bound by them.

6. One whose life is established in Truth.

7. One who ever aspires to become the embodiment of the knowledge he has attained.

8. One who aspires to manifest the luminous radiance of Adhyatam.

The life of such a perfect being is the manifestation of Adhyatam.

The Lord is about to narrate that knowledge, acquiring which, the great Rishis of yore became self realised. They who aspired for mastery over the mind, attained such sovereignty; those who aspired for the supreme state of Brahm, attained it; those who had faith in Brahm, merged in That Supreme One.

अथ चतुर्दशोऽध्याय:

श्री भगवानुवाच

परं भूय: प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।

यज्ज्ञात्वा मुनय: सर्वे परां सिद्धिमितो गता:।।१।।

भगवान कहते हैं अर्जुन से :

शब्दार्थ :

१. फिर से (मैं) सम्पूर्ण ज्ञान में से उत्तम ज्ञान कहूँगा,

२. जिसको जान कर सब मुनिगण,

३. यहाँ से (संसार से) परम सिद्धि को प्राप्त हुए।

तत्त्व विस्तार :

भगवान की करुणा :

भगवान की करुणा देख!

1. वह विविध विधि ज्ञान समझाते हैं।

2. वह कितने प्रेम से सविस्तार समझाते हैं।

3. वह वही बात बार बार सुझाते हैं।

4. वह अनेक बार बिन पूछे भी बताते हैं।

ताकि,

क) किसी विधि अर्जुन समझ ले,

ख) किसी विधि मित्र समझ ले,

ग) किसी विधि शरण पड़ा हुआ अर्जुन समझ ले,

घ) किसी विधि यह मुझे समझ ले और मेरा स्वरूप जान ले,

ङ) किसी विधि यह मेरे जीवन को समझ ले, मेरे स्वरूप को समझ ले,

च) किसी विधि यह जीवन में आनन्द स्वरूप बन जाये,

इस कारण वह बहु विधि से समझाते हैं।

अब कह रहे हैं, ‘तुझे ऐसा ज्ञान दे रहा हूँ, जिसे जान कर मुनिगण सिद्धि को पा गये।’

मुनि कौन है :

मुनि वह है,

1. जो मन का पति है।

2. जो गुणातीत है।

3. जो मन पर राज्य करने वाला है।

4. जो सत् को पूर्ण रूप से जीवन में लाये हुए है।

5. जो गुण जान कर गुण बधित नहीं होता।

6. जिसका जीवन सत् में स्थित होता है।

7. जो ज्ञान की प्रतिमा आप बनने के लिये तत्पर रहता है।

8. जो अध्यात्म पर आधारित प्रकाश रूप बनने के लिए प्रयत्न करता है।

यानि, उसका जीवन ही अध्यात्म का रूप होता है।

भगवान आज वह ज्ञान कहने लगे हैं, जिसे पाकर ऋषिगण मुनि बन गये। यानि, मनो प्रभुता चाहुक मनो प्रभुता पा गये, ब्रह्म ज्ञानी ब्राह्मी स्थिति पा गये, यानि ब्रह्म निष्ठ ब्रह्म में समा गये।

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