Chapter 2 Shloka 51

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण:।

जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्।।५१।।

Speaking of the attainment of Yoga through the intellect,

the Lord says: You too, should do the same.

Endowed with the intellect of equanimity,  and renouncing

the fruits of action,  the man of wisdom attains freedom

from the bondage of birth and death and achieves perfection.

Chapter 2 Shloka 51

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण:।

जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्।।५१।।

Speaking of the attainment of Yoga through the intellect, the Lord says: You too, should do the same.

Endowed with the intellect of equanimity, and renouncing the fruits of action, the man of wisdom attains freedom from the bondage of birth and death and achieves perfection.

The Lord repeats, that possessed of such an intellect, the individual renounces the fruit of action and is consequently freed from the cycle of birth and death.

Little one, if the intellect understands the true nature of the body and the truth that ‘I am not the body’, it has the capacity to guide the mind towards that Truth and to gradually renounce the body idea through persevering practice.

It is imperative to consciously remember through every deed performed, ‘I am not the body’ and ‘This body is not mine’. As this conviction grows:

a) You will ignore the fruits of action;

b) You will begin to perform selfless deeds;

c) Your life will attain purity;

d) Your moha of ‘me and mine’ will diminish;

e) Your feeling of doership will subside and you will gradually forget your own name and form.

In due course, you will transcend the cycle of life and death – for, if you do not see your body as your own, then who takes birth? How can you claim the deeds of the mind as your own? It is attachment which fills the breath of life into the seeds of birth and death.

Raag or attachment

1. Raag is the cause of life and death.

2. It is the cause of moha and ignorance.

3. It binds the person to the idea of individual existence.

4. It creates the bondage to the body idea and the idea of doership.

5. Because of attachment, the individual identifies with the attributes of the physical body.

6. It is therefore the cause of the annihilation of knowledge.

7. Driven by his likes, the individual commits many a crime.

If attachment ceases, redemption is certain. Then the individual will also gain transcendence from the body idea. It is for the eradication of attachment that one needs the assistance of the intellect and knowledge of the Scriptures. We are attached to the transient – to illusion. Now we must become attached to the Atma and subsequently merge in it. All the Scriptures and the path of sadhana teach us how to free ourselves from the attachment that binds us to the body. Lord Krishna reiterates here, “If attachment goes, only the Supreme remains.”

अध्याय २

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण:।

जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्।।५१।।

भगवान बुद्धि की राही योग की विधि बता कर कहते हैं, तू भी ऐसा ही कर!

शब्दार्थ :

१. बुद्धियुक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न

२. फल को त्याग कर जन्म मरण से मुक्त हुए,

३. निर्दोष पद को प्राप्त होते हैं।

तत्व विस्तार :

फिर से भगवान कह रहे हैं कि :

1. बुद्धि से युक्त होकर जीव कर्मफल का त्याग करते हैं।

2. कर्मफल को त्याग कर जीव जन्म मरण के चक्र से तर जाते हैं।

नन्हीं! जैसे पहले भी कह कर आये हैं, बुद्धि गर भली प्रकार तन को जान ले और ‘मैं तन नहीं हूँ’ इसका राज़ जान ले, तो वह अपने मन को मना सकती है और शनै: शनै: जीवन में कर्मों के राही अभ्यास करती हुई आपको तनत्व भाव से परे रखती है।

कर्म करते समय यही याद रखना चाहिये कि ‘मैं तन नहीं हूँ’ और ‘यह तन मेरा नहीं है।’ ज्यों ज्यों यह भाव आपके हृदय में परिपक्व होता जायेगा, आप स्वत:

1. कर्मफल की ओर ध्यान नहीं रखेंगे।

2. निष्काम कर्म करने शुरू कर देंगे।

3. आपका जीवन शनै: शनै: निर्दोष होने लग जायेगा।

4. आपका मोह धीरे धीरे कम होने लगेगा।

5. तन का कर्तृत्व भाव भी छूटने लगेगा।

6. जब तन अपनाना बन्द होने लगेगा, तब आप अपना रूप भी भूलने लगेंगे।

7. जब आप इसकी पराकाष्ठा तक पहुँचेंगे तब जन्म मरण के बन्धन से स्वत: छूट जायेंगे, क्योंकि जब आप अपने तन को ही अपना नहीं मानेंगे तो आप अपने जन्म को अपना कैसे मानोगे? अपने मनो कर्म को अपना कैसे मानोगे? संग ही जन्म मरण के बीज में प्राण भरता है।

राग :

1. राग ही जन्म मरण का कारण है।

2. राग ही मोह और अज्ञान का मूल कारण है।

3. राग ही जीव को जीवत्व भाव से बाँधता है।

4. राग ही जीव को तनत्व भाव से बाँधता है।

5. राग ही जीव को कर्तृत्व भाव से बाँधता है।

6. राग के कारण ही जीव तन के गुणों के तद्रूप हो जाते हैं।

7. राग के कारण ही जीव तन के गुणों को अपना मानने लगते हैं।

8. राग के कारण ही जीव का ज्ञान नष्ट हो जाता है।

9. राग के कारण ही जीव जहान में इतना अनिष्ट करते हैं।

गर संग ही न रहे तो जीव जीते जी तर जाये और तनत्व भाव से उठ जाये। इसी संग को मिटाने के लिये ज्ञान चाहिये, इसी संग को मिटाने के लिये बुद्धि चाहिये। हमारा संग मिथ्यात्व से हो गया है, यह संग अब आत्मा से करना है और फिर आत्मा में लय हो जाना है। पूर्ण शास्त्र ज्ञान तथा साधना मार्ग इसी तनो तद्रूप कर संग को मिटाने की ही बातें कहते हैं।

यह संग मिटे तो परम में टिके, बस इतना ही कहा श्याम ने।

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