अध्याय २
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।३१।।
अब भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. और अपने आपको देखते हुए भी
२. (तुम्हारा) कांपना योग्य नहीं, क्योंकि,
३. धर्मयुक्त युद्ध से बढ़ कर श्रेय कारक
४. क्षत्रिय के लिये (और)
५. कुछ नहीं।
तत्व विस्तार :
अब फिर अर्जुन को शोक मुक्त करने के लिये भगवान कहते हैं :
1. देख! तू तो क्षत्रिय कुल का है।
2. तू तो आयु भर लोगों से युद्ध करता आया है।
3. क्षत्रिय गण तो मृत्यु से भी नहीं डरते।
4. क्षत्रिय गण तो प्राणों की बाज़ी लगाते हुए भी नहीं डरते।
अर्जुन तो फिर अनेकों युद्ध जीत चुका था। भगवान उसे उसकी क्षत्रियता की याद दिला कर, युद्ध के लिये उत्तेजित कर रहे हैं।
फिर कहते हैं अर्जुन! क्षत्रिय को धर्म युद्ध करने का मौका कब मिलता है? धर्म युद्ध करने से बढ़ कर और अच्छा तथा कल्याणकारी युद्ध कौन सा हो सकता है?
धर्म युद्ध :
इसे बार बार धर्मयुद्ध क्यों कह रहे हैं, इसे समझ लो!।
क्योंकि यह युद्ध :
1. धर्म की स्थापना करने के लिये किया जा रहा था।
2. धर्म की मर्यादा भंजन करने वाले कौरवों से किया जा रहा था।
3. धर्म की मर्यादा भंजन करने वाले गुरुजन से किया जा रहा था।
4. न्याय की मर्यादा भंजन करने वाले आततायियों से किया जा रहा था।
5. धर्म की स्थापना करने के लिये अधर्मियों से किया जा रहा था।
6. यह युद्ध तो साधुता पूर्ण लोगों द्वारा दुराचारियों से किया जा रहा था।
7. यह युद्ध तो सत् सिद्धान्तों के कारण किया जा रहा था।
8. यह युद्ध तो भगवान कहते हैं, ‘अर्जुन! क्षत्रियों को बड़े भाग्य से मिलता है। ऐसा युद्ध तो महा कल्याणकर होता है इसलिये तुझे यह युद्ध करना ही चाहिये।’
नन्हीं साधिका!
क) तुम्हारा भी यही कर्तव्य है।
ख) तुम्हारे लिये भी यही श्रेय पथ है।
ग) तुम्हारे लिये तुम्हारी अपनी दुर्वृत्तियाँ भी अत्याचारी ही हैं।
घ) तुम्हारे अहंकार ने ही भागवद् गुणों को दबा लिया है।
ङ) तुम्हारे दम्भ तथा दर्प ने भी तुम्हारी इन्सानियत को दबा लिया है।
च) तुम्हारे असत् पूर्ण व्यवहार ने तुम्हारी सत्यता को भी दबा लिया है।
छ) तुम्हारे लोभ तथा कामना ने तुम्हारे उदार चित्त को कंजूस बना दिया है।
ज) तुम्हारे मोह ने तुम्हारी आँखों को अन्धा बना दिया है।
झ) तुम्हारे मिथ्यात्व ने तुम्हें तुम्हारे स्वरूप की विस्मृति करवा दी है।
ण) तुम्हारे मिथ्यात्व ने तुम्हें तुम्हारे सहज स्वभाव की विस्मृति करवा दी है।
ट) इस मोह रूप अन्धेपन ने तुम्हारा सुख, चैन लूट लिया है।
नन्हीं! जीव की लड़ाई निरन्तर दूसरे इन्सानों से होती रहती है। जीव निरन्तर औरों को दबाने के यत्न करते रहते हैं। कभी अपने आन्तर में दुश्मनों से भी लड़ पड़ें तो संसार के बहुत से दु:ख ख़त्म हो जायें और प्राणी स्वयं भी सुखी हो जायेंगे।
नन्हीं! तू आभा भण्डारी है, अपने भण्डार भागवद् गुणों से भर कर, अपना नाम, जो तुझे भगवान ने दिया है, इसे सार्थक कर ले। भण्डारी तभी बन सकते हो, यदि आपकी मुट्ठी कभी बन्द न हो। भण्डारी तभी बन सकते हो यदि आपकी राही संसार को सुख मिलता रहे। भण्डारी तभी सार्थक हो सकता है यदि वह दैवी गुण लुटाता रहे। तुम तो इस कुल की आभा कहलाती हो।