Chapter 2 Shloka 26

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।२६।।

When Lord Krishna saw that Arjuna had not comprehended

the essential nature of the Atma, He explained it from yet another angle.

Even though you think that the Self is subject to

birth and death, even then, O mighty armed one!

You have no reason to grieve.

Chapter 2 Shloka 26

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।२६।।

When Lord Krishna saw that Arjuna had not comprehended the essential nature of the Atma, He explained it from yet another angle.

Even though you think that the Self is subject to birth and death, even then, O mighty armed one! You have no reason to grieve.

Dear little one! When the Lord sees that the other is unable to understand what he is saying, that Supreme Guru descends to the disciple’s intellectual level.

a) Arjuna was unable to comprehend the truth about the Atma;

b) Arjuna did not possess the requisite faith to believe Lord Krishna’s words instantly, as a divine injunction;

c) He may have understood that Truth in theory but its practical implication was very difficult to understand.

In actual fact, those who take pride in their intellect, feel they are able to understand everything. They therefore accept only that which they can understand intellectually.

However:

1. How can they accept that essence which cannot be brought into the mind’s thoughts?

2. How can they concur with that which cannot be grasped?

3. How can they know that which never manifests itself, which cannot be defined with certainty?

4. How can limited human understanding comprehend the limitless?

It is also extremely difficult to accept that knowledge which you do not wish to apply in practice.

a) Knowledge which has not proved itself in your life, is meaningless ignorance.

b) Knowledge which is not used in practice, is mere word knowledge.

c) Knowledge which you do not bring into your life, that knowledge is lifeless and without light.

d) If you become the living embodiment of knowledge, then that knowledge brings illumination and is full of life.

In order to comprehend the nature or essence of the Atma, it is necessary to become an Atmavaan. Actually the Atma cannot be understood, one can only merge in it through renunciation of identification with the body, with the actions of the body and with the body’s sensory experiences. The resultant state cannot be described in words.

This was Arjuna’s problem. He, too, could not understand the Lord’s explanation of the Atma. Therefore Lord Krishna, now talking from His point of view, said to him, “Arjuna! If you truly believe that the Atma takes birth and is subject to death, then it is not right for you to grieve. For:

a) birth is inevitable;

b) death, too, is inevitable.

If one must die, of what avail is this grief? Continue to perform your allotted duty.”

O Sadhak! You too, must renounce your pride of the intellect and accept the Lord’s word in toto. Do not bother if your intellect understands it completely or not. The Lord is telling you the truth. He says, you are not the body, you are not the mind and you are not the intellect. Look!

1. That Supreme Purushottam Himself has told you so!

2. That Eternal divine Essence, Who is knowledge embodied, has told you so!

3. That Luminescence Itself – Atma Itself has told you so!

4. That One Who is the very Light of spirituality, Lord Krishna Himself has imparted this knowledge!

5. That Indestructible, pure blissful One Who is the Supreme Brahm, Truth Itself, the Unmanifest manifested – has told you so!

If you do not listen to Him, then whose word will you accept? Who will come to you to impart this knowledge as Lord Krishna Himself has done? Therefore:

a) Accept what He says;

b) Renounce all attachment with this body;

c) Even if it be only for a short while, do as He says;

d) Establish your relationship with the Atma and stop considering yourself to be this body.

Why did the Lord have to say, “If you do not believe my word, I shall explain it to you in another way?” Why do you bring Him down thus to your level? Why do you not accept all He says as the gospel Truth and try to apply it to your life? At least accept that the Lord is telling the Truth. He cannot be wrong – your understanding may be deficient.

Your failure to understand His Word can have many causes:

a) You may be afraid to relinquish the body idea;

b) You may be fearful of renouncing all that you call your own;

c) An individual is always afraid to let go of his established concepts and beliefs;

d) ‘What will become of me if I forget myself?’ Such fears get the better of the person.

These are the varied reasons due to which ordinary mortals, whose intellect is limited by their identification with the body, are unable to understand the Lord’s Word.

Little one! The One you consider to be your Lord has spoken thus! Gather your courage and try to accept what He says – who knows, it might work!

अध्याय २

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।२६।।

जब भगवान ने देखा – अर्जुन तत्व ज्ञान की दृष्टि से आत्मा को नहीं समझा, तब उसे दूसरे दृष्टिकोण से समझाने लगे और कहने लगे :

शब्दार्थ :

१. और यदि तू इसको, (आत्मा को),

२. सदा जन्मने और सदा मरने वाला माने,

३. तो भी हे अर्जुन! तुझे ऐसा शोक करना उचित नहीं।

तत्व विस्तार :

नन्हीं लाडली! जब भगवान देखते हैं कि दूसरा उनकी बात नहीं समझ रहा तब वह परम गुरु शिष्य के बुद्धि स्तर पर आकर उसे समझाते हैं।

1. अर्जुन न तो आत्म तत्व की बात समझ सका और न ही जान सका।

2. अर्जुन में इतनी श्रद्धा ही नहीं थी कि ‘भगवान ने कहा है’, यह जान कर भगवान की बात मान ले।

3. शब्द ज्ञान तो थोड़ा समझ भी गया होगा, किन्तु जीवन में उसे ले आना अतीव कठिन है।

असल बात यह है नन्हीं! बुद्धि का गुमान रखने वाले लोग समझते हैं कि उनकी बुद्धि सब कुछ समझ सकती है। वे उस बात को मानते हैं जो उनकी बुद्धि में आ जाये, यानि :

क) जो वे समझ सकते हैं,

ख) जो उनके चिन्तन में आ जाये,

ग) जो वे प्रत्यक्ष सामने देख लें,

घ) जो शब्द बधित हो सके,

फिर उसे शायद मान भी लें।

किन्तु :

1. जिस अचिन्त्य तत्व का चिन्तन भी न कर सकें, उसे कैसे मान लें?

2. जिस अग्राह्य तत्व को ग्रहण ही न कर सकें, उसे कैसे मान लें?

3. जो नित्य अव्यक्त तत्व है, जिसका निश्चित रूप से निश्चय न किया जा सके, उसको कैसे जान लें?

4. जो अप्रमेय तत्व है, उसे कैसे मान लें?

5. जीव की सीमित बुद्धि असीम को कैसे जान सकती है?

फिर, जो बात या तत्व तुम अपने जीवन में न लाना चाहो, उसे समझना अतीव कठिन है।

क) ज्ञान, जो आप ही के जीवन में सिद्ध न हो, वह अज्ञान समान ही होता है।

ख) जिस ज्ञान का प्रयोग आप अपने जीवन में नहीं करते, वह ज्ञान शब्द ज्ञान ही रह जाता है।

ग) जिस ज्ञान को आप अपने जीवन में नहीं लाते, वह ज्ञान निष्प्राण तथा निस्तेज रह जाता है।

घ) यदि आप स्वयं ज्ञान की प्रतिमा बन जायें तो वह ज्ञान सतेज तथा सप्राण हो जाता है।

आत्म तत्व को समझने के लिये आत्मवान् बनना ज़रूरी है। आत्म तत्व समझ में आने की बात नहीं, आत्म तत्व में समाहित हुआ जा सकता है, यानि तनत्व भाव, कर्तृत्व भाव तथा भोक्तृत्व भाव त्याग किया जा सकता है। तत्पश्चात् की स्थिति का ब्यान नहीं किया जा सकता।

अर्जुन को भी यही मुश्किल पड़ी। वह आत्म तत्व को न समझ सका। इस कारण भगवान उसके दृष्टिकोण से कहने लगे कि अर्जुन! यदि तू मानता है कि आत्मा का नित्य जन्म होता है और आत्मा नित्य मरता है, तब भी तुम्हारे लिये शोक करना उचित नहीं क्योंकि :

क) जन्म तो निश्चित होगा।

ख) मृत्यु तो निश्चित आयेगी।

जब मरना ही है तो शोक कैसा? जो तेरा कर्तव्य है, वह करता जा।

साधक! तू भी बुद्धि गुमान छोड़ दे और भगवान की कथनी मान ले। बुद्धि माने या न माने, इसकी परवाह न कर। साक्षात् भगवान कथन तू मान ले, भगवान तो सच ही कहते हैं। वह कहते हैं तू मन नहीं, तू बुद्धि नहीं है। देख तो ले!

1. साक्षात् परम पुरुष पुरुषोत्तम, भगवान स्वयं कह रहे हैं।

2. नित्य भगवद् तत्व, विज्ञान स्वरूप स्वयं कह रहे हैं।

3. नित्य प्रकाश, आत्म स्वरूप स्वयं कह रहे हैं।

4. नित्य अध्यात्म प्रकाश स्वरूप भगवान कृष्ण स्वयं कह रहे हैं।

5. नित्य अविनाशी, ज्ञान स्वरूप स्वयं कह रहे हैं।

6. विशुद्ध परमात्मा, आनन्द स्वरूप भगवान स्वयं कह रहे हैं।

7. परम ब्रह्म, अखण्ड तत्व, सत्त्व स्वरूप स्वयं कह रहे हैं।

8. निराकार, साकार रूप धर कर कह रहे हैं।

गर इनकी बात भी तू नहीं मानेगा तो फिर किसकी बात मान पायेगा? कृष्ण जैसा समझाने पुन: कौन आयेगा? इसलिये :

क) जो वह कहते हैं, मान ले।

ख) इस तन से नाता तोड़ दे।

ग) कुछ पल के लिये ही सही, जो वह कह रहे हैं, वही कर।

घ) आत्मा से नाता जोड़ ले और अपने आपको तन समझना बन्द कर दे।

भगवान को क्यों कहना पड़ा, ‘यदि तू मेरा कथन नहीं मानता, तो तुझे तुम्हारे ही दृष्टिकोण से समझाता हूँ?’

तुम भी भगवान को क्यों झुकाना चाहते हो? भगवान की बात को अक्षरश: सत् मान कर उसे जीवन में लाने के यत्न क्यों नहीं करते? इतना ही मान ले कि भगवान सत्य कहते हैं; भगवान गलत नहीं हो सकते; आपकी समझ में कमी हो सकती है, किन्तु भगवान की कथनी में कमी नहीं हो सकती। फिर समझ की कमी के भी तो अनेकों कारण हो सकते हैं, जैसे :

क) तनत्व भाव छोड़ते हुए डर लगता है।

ख) अपनापन छोड़ते हुए डर लगता है।

ग) अपनी मान्यताओं को छोड़ते हुए भी जीव को डर लगता है।

‘भाई! अपने आपको ही भूल जायें, तो फिर हमारा क्या होगा?’ ऐसे विचार मन में उठ आते हैं। इन्हीं कारणों से देहात्म बुद्धि युक्त जीव भगवान की बातें नहीं समझ सकता।

किन्तु नन्हीं! भगवान ने कहा है! जिन्हें आप भगवान मानते हो, उन्होंने कहा है! ज़रा सी हिम्मत की बात है, कोशिश करके तो देखो, शायद काम बन ही जाये।

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