अध्याय २
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।६१।।
कृष्ण अर्जुन को सलाह देते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. सम्पूर्ण इन्द्रियों को संयम में लाकर,
२. एकाग्र चित्त करके,
३. मेरे परायण हो जा;
४. क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वश में होती हैं,
५. उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित होती है।
तत्व विस्तार :
:इन्द्रियों का नितान्त अभाव नहीं हो सकता। जब तक जीयें, इनसों योग रहता ही है। ज्ञान भी उनके राही ही मिलता है। जीवन इन राही ही चलता है और स्थूल तन इन राही ही पलता है। इस कारण भगवान कह रहे हैं
1. इन्हें संयम में ले आओ। जब तुम इनके मालिक बन जाओगे तब यह तुम्हारे वश में रहेंगी।
2. इन्हें अपने पथ पे ले आना चाहिये, यह तुम्हारी सहयोगी बन जायेंगी।
3. यह इन्द्रियाँ तेरे अधीन तथा वश में होनी चाहियें, तुम्हें इनके अधीन नहीं रहना चाहिये।
4. तुम इनका नियमन् करो तब ही तुम्हारा काम चलेगा।
5. यह हाथी के समान हैं, इन पर तुम संयम रूपा अंकुश लगा लो।
6. इन पर आसन बना के राज्य करो, इनके अधीन न हो जाओ।
फिर तुम युक्त चित्त हो ही जाओगे।
भगवान कहते हैं, इन्द्रियों को संयमित करके मेरे परायण हो जा। यानि भगवान स्वयं कह रहे हैं कि :
क) सब कुछ मुझी पर छोड़ दे।
ख) तू मुझसे प्रेम करना आरम्भ कर दे।
ग) तू मेरे आश्रित हो जा।
घ) जो मैं कहूँ तू वही करना।
ङ) तू सब कुछ मेरे हवाले कर दे।
च) तू मेरी शरण में आ जा।
देख नन्हीं! यहाँ पर इन्द्रिय संयम की राह बताते हुए भगवान ने यह सब कहा।
पहले भगवान से प्रेम का अर्थ समझ ले। भाई! यदि तुझे भगवान से प्रेम हो ही गया तो विषयों की याद ही कैसे रहेगी? यदि तेरा मन भगवान में टिक गया तो तू अपने तन को भी भूल जायेगा। यदि तुझे भगवान ही रुचिकर हो गये, तब हर अन्य रुचि तेरे लिये निरर्थक हो जायेगी।
नन्हीं! प्रेम अनुरक्त अपने प्रेम में ही इतने विभोर हुए रहते हैं कि उन्हें अपनी सुध बुध ही नहीं रहती। वह तो जो भी करते हैं, अपने प्रेमास्पद के लिये ही करते हैं। भगवान से प्रेम हो ही गया तो तुम भगवान के गुणों के चाकर बन ही जाओगे। तुम जीवन में जो भी करोगे, वह भगवान के नाम पर ही अर्पित कर दोगे। तब तुम भगवान के नाम पर कलंक नहीं बन सकते।
प्रेम आपको आपके प्रेमास्पद के तद्रूप और आपको प्रेमास्पद के गुणों से भरपूर कर ही देगा। प्रेम आपको प्रेमास्पद के साधर्म्य कर ही देगा।
इसलिये भगवान इन्द्रिय संयम की बात समझाते हुए अर्जुन को कहते हैं कि, ‘तू मेरे परायण हो जा।’
मेरी नन्हीं जान्! यह तो विषयों से और इन्द्रियों से उपराम होने की सहज विधि है।
तब जीव की बुद्धि स्वत: स्थित हो जायेगी, क्योंकि :
1. तब वह अपने आपको भूल कर जीवन में विचरेगा और जीवन में अपने प्रेमास्पद का धर्म निभायेगा।
2. तब वह अपने आपको भूल कर जीवन में अपने प्रेमास्पद के गुणों को अपने से अधिक महत्व देगा।
3. तब वह अपने प्रेमास्पद के नाम पर कलंक नहीं बनना चाहेगा।
4. तब वह अपने प्रेमास्पद को नित्य मुदित रखना चाहेगा।
5. तब वह वही करेगा, यदि उसकी जगह उसका प्रेमास्पद होता, तो करता।
6. उसके जीवन के सम्पूर्ण निर्णय और कर्म उसके प्रेमास्पद के दृष्टिकोण से ही होंगे।
भाई! उसका दृष्टिकोण ही उसके प्रेमास्पद का दृष्टिकोण होगा। वह तो कहेगा – ‘मेरी लाज तो मुझे याद ही नहीं रहती, अब तो तुम्हारी लाज की बात है।’