Chapter 2 Shloka 7

कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेता:।

यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं

शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।७।।

It seems that Arjuna became apprehensive about

his own mental state and said to Lord Krishna:

My innate nature is overshadowed by fear and

I do not know where my duty lies; I request You

to tell me what is definitely the right action for me.

I, Your disciple, take refuge in You; pray instruct me!

Chapter 2 Shloka 7

कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेता:।

यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।७।।

It seems that Arjuna became apprehensive about his own mental state and said to Lord Krishna:

My innate nature is overshadowed by fear and I do not know where my duty lies; I request You to tell me what is definitely the right action for me. I, Your disciple, take refuge in You; pray instruct me!

Look carefully little one! All this time, Arjuna was preaching to the Lord about what was right and wrong, and That Embodiment of Knowledge was listening silently. The mighty warrior, Arjuna, was explaining to his charioteer the reasons for retreating from the battlefield!

Karpanya dosh (कार्पण्यदोष)

When Krishna called Arjuna a coward, the latter woke up and realised his momentary downfall, the weakening of his intellect and his utter poverty of understanding and was further agitated. Arjuna, a lover of the Truth, accepted that his nature had been veiled and tainted by his cowardice. He admitted:

a) his helplessness,

b) his weakness,

c) his cowardice,

d) his lack of discriminatory powers,

e) his failure of intellect,

f) his inability to perform any act,

g) he admitted his inability to think correctly,

h) his wretchedness.

Arjuna says, “All these lacunae have:

a) made me lose my strength;

b) made my limbs weak;

c) eclipsed my natural courage and strength;

d) resulted in the loss of my fortitude and patience;

e) made me lose the power to discriminate between the right and wrong;

f) caused confusion in my mind.”

Upahata Swabhav (उपहत स्वभाव:)

He proclaimed to the Lord that:

1. This has veiled his natural and courageous nature of a warrior.

2. This has corrupted his basic nature.

3. His nature has been rendered impure.

4. His basic nature was subverted and in fact totally obliterated by this weakness.

Dharma Samoodha Chetaha (धर्मसंमूढचेता:)

Arjuna says:

1. I have become confused about the duty incumbent upon me;

2. I can no longer discern the difference between the path of shreya and the path of preya – between truth and the untruth.

3. I have forgotten what is knowledge and what is ignorance.

4. I have lost track of both dharma and adharma.

5. What must I do and what should I not do?

6. I know not who is my own and who is against me.

7. Who am I and what am I?

8. My earlier decisions no longer seem correct and now I do not have the strength to take any decision anew.

9. My own understanding seems opposed to my own decisions.

10. Today I cannot find any substance in those same principles which persuaded me to fight in the past. I can no longer rise in their defence.

11. Those attitudes which I found worthy of destruction in the past now frighten me when I find my own near and dear ones displaying the same attributes.

Prichhaami Tvaam (पृच्छामि त्वाम्)

“O Lord! I ask of You, if You had been in my situation, what path would You have adopted? I have forgotten my goal in life. Who else but You can guide me? I humbly beseech You to show me the way.

I am Your disciple. Whatever You say, I will obey. You are the Lord of the Universe and I am a miserable weakling.”

Shishyasteham (शिष्यस्तेऽम्)

“You are all wisdom and I, a craven fool. I do not even know myself! You know me – You know my abilities – tell me what I should do. Thou giver of strength! I am Your little child – I am weak, show me the path. I am Your disciple, hold my hand and guide me.”

Tvaam Prapannam (त्वाम् प्रपन्नम्‌)))

1. “I seek Your refuge.

2. I am weak and helpless, and You are all powerful. Please give me Your protection.

3. Shyam, You are the Supreme Refuge of all who seek asylum – let me be at Thy feet.

4. O Lord! You are the bestower of compassion and I, helpless and forlorn, seek Your protection.

5. You are Mercy Itself and I, a beggar of mercy.

6. I seek Thy understanding and knowledge – I seek the refuge of Thy divine intellect.

7. You have come to the world to establish dharma while I have forgotten my path of dharma.

8. I have forgotten my own identity and now I only want to give the reins of my life in Your hands. Take this body whichever way You will! Rule over my intellect which has now forsaken me.

I plead that You advise me. I will do as You say.”

अध्याय २

कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेता:।

यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।७।।

ऐसा प्रतीत होता है कि अर्जुन अपनी ही मानसिक स्थिति से घबरा गया और तड़प कर भगवान श्री कृष्ण से बोला :

शब्दार्थ :

१. कृपणता के दोष से,

२. मेरा स्वभाव आवृत हो गया है

३. और धर्म के विषय में किंकर्तव्य विमूढ़ चित्त वाला हुआ,

४. मैं आपसे पूछता हूँ,

५. जो निश्चित रूप से श्रेयस्कर हो, वह आप मुझे कहिये।

६. मैं आपका शिष्य हूँ,

७. आप मुझे शिक्षा दीजिये।

तत्व विस्तार :

ध्यान से देख नन्हीं!

क) इतनी देर तो अर्जुन भगवान को ज्ञान देते रहे और ज्ञान स्वरूप भगवान चुप रहे और सब सुनते रहे।

ख) उचित अनुचित की बातें अर्जुन भगवान को ही समझाते रहे।

ग) महा बलवान तथा धनुर्धारी अर्जुन युद्ध से भाग जाने के कारण एक सारथी कृष्ण को बताते रहे।

जब भगवान ने कहा – ‘तुम कायर हो’, तब अर्जुन को कुछ होश आई और मानो वह और भी घबरा गये।

किन्तु अर्जुन सत्प्रिय थे, इसलिये अपनी कायरता को समझ गये। वह अपनी बुद्धि की न्यूनता को और अपने स्वभाव की गिरावट को समझ गये। अर्जुन ने अपनी त्रुटियों को भगवान के सम्मुख स्वयं वर्णन कर दिया, वह कहने लगे :

कार्पण्यदोष’ ने मेरे स्वभाव को घेर लिया है, यानि :

1. कृपणता,

2. दुर्बलता,

3. कायरता,

4. विवेक शून्यता,

5. बुद्धि दौर्बल्य,

6. किसी कार्य को करने की अयोग्यता,

7. सीधी तरह सोचने की अयोग्यता,

8. दरिद्रता,

अर्जुन कहते हैं, इन सब दोषों ने मुझे :

1. शक्ति हीन बना दिया है।

2. शिथिल अंगी बना दिया है।

3. मेरे सहज स्वाभाविक शौर्य और तेज को आवृत कर दिया है।

4. इन्हीं के कारण मुझमें धृत्ति और धैर्य भी नहीं रहे।

5. उचित अनुचित का विवेक नहीं रहा।

6. मन में भ्रम भी उठ आया है।

उपहत स्वभाव: यानि :

1. मेरा सहज तेजोमयी तथा बलवान् योद्धा का स्वभाव आवृत हो गया है।

2. मेरा सहज स्वभाव भी इस समय दूषित हो गया है।

3. मेरा सहज स्वभाव कृपणता के कारण अपावन हो गया है।

4. मेरा सहज स्वभाव इस समय सर्वथा नष्ट हो गया है।

5. मेरा सहज स्वभाव क्षत विक्षत हो गया है।

6. मेरा सहज स्वभाव चोट खाकर इस पल क्षीण हो गया है।

अर्जुन कहते हैं, ‘धर्मसंमूढचेता:’ हो गया हूँ यानि :

1. मैं किंकर्तव्य विमूढ़ हो गया हूँ।

2. मुझे श्रेय तथा प्रेय पथ में भेद समझ नहीं आ रहा।

3. मुझे सत् और असत् में भेद समझ नहीं आ रहा।

4. मैं ज्ञान और अज्ञान दोनों भूल गया हूँ।

5. मुझे धर्म अधर्म भी समझ नहीं आ रहे।

6. मैं क्या करूँ, क्या न करूँ, मुझे कुछ भी तो समझ नहीं आ रहा।

7. कौन अपना है, कौन पराया, यह भी तो समझ नहीं आ रहा मुझे।

8. कौन हूँ मैं, क्या हूँ मैं, अब यह भी याद नहीं रहा मुझे।

9. जो निर्णय किये थे, वह उचित नहीं लगते, और दूसरे निर्णय लेने की शक्ति नहीं रही।

10. यह मेरे अपने ही निर्णय, मेरी अपनी ही मान्यताओं ने तोड़ दिये हैं।

11. सारी उम्र भर जिन सिद्धान्तों के लिये मैं युद्ध करता रहा, आज उन्हीं सिद्धान्तों के लिये मुझसे खड़ा भी नहीं हुआ जाता।

12. संसार में जिसे नित्य मिटाने के योग्य कह कर मिटाता आया हूँ, आज जब मेरे ही प्रियगण, मित्र गण तथा बन्धु गण वही कार्य कर रहे हैं, तो मैं घबरा गया हूँ।

पृच्छामि त्वाम्’ :

हे भगवान! आज तुम्हीं से पूछता हूँ, ‘मैं क्या करूँ क्या न करूँ?’ हे भगवान! तुम्हारे सिवा कौन बतायेगा मुझे? इसलिये तुम्हीं से पूछता हूँ :

यत् श्रेय: स्यात् तत् मे ब्रूहि:’

अर्थात् :

1. जो श्रेयस्कर है, वह तू ही मुझे बता दे।

2. कोई रास्ता बता दे कि मैं क्या करूँ?

3. तू ही बता मैं कौन से पथ का अनुसरण करूँ?

4. भगवान! यदि तू मेरी जगह होता तो क्या करता? मुझे तू ही बता देना।

5. यदि तू मेरी स्थिति में होता तो जो पथ तू अपनाता, वही धर्म पथ होता। आज मुझे भी बता दे कि मैं क्या करूँ?

6. मैं अपना स्वभाव भूल गया हूँ, मुझे बता मेरा कौन सा स्वभाव है?

7. मुझे क्या करना चाहिये? आज विनीत भाव से तुझ से पूछ रहा हूँ, तुम्हीं बता दो न!

कहो! कहो! श्याम! मुझे कुछ तो कहो!

शिष्यस्तेऽम्’ :

मैं तुम्हारा शिष्य हूँ। तुम जो कहोगे, उसे सीस धरूँगा। तुम जगद्गुरु, मैं महा कृपण हूँ। तुम ज्ञान स्वरूप, मैं कायर, अज्ञानी हूँ। मैं राहों में पथ भूला हूँ, तुम प्रकाश स्वरूप सब जानते हो। मैं अपने आपको भी भूल गया हूँ। तुम तो मुझे भी जानते हो। मैं ख़ुद को ही भूल गया हूँ। मैं क्या जानूँ मैं क्या कर सकता हूँ, क्या नहीं कर सकता? यह भी तुम ही जानते हो।

निर्बल के बल बन कर श्याम! तुम ही पथ दिखा दो मुझे। मैं नन्हा शिशु, शिष्य तुम्हारा, तुम ही अब मेरा कर थाम लो भगवान!

त्वाम् प्रपन्नम्‌’ :

1. मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ।

2. मैं निर्बल, बलहीन, अखिल बलपति की शरण में आया हूँ।

3. अशरण की शरण तुम हो श्याम, मुझे अपनी शरण में रहने दो।

4. भगवान! तुम दीन दरिद्र के रखवारे हो, मैं कृपण रूप धर कर तोरी शरण में आया हूँ, मेरी रक्षा करो।

5. तुम करुणा पूर्ण कहलाते हो, मैं करुणा याचक आया हूँ।

6. तेरे ज्ञान का याचक बन कर, तेरे विवेक की शरण में आया हूँ।

7. तुम धर्म स्थापित करने को आते हो, मैं तो धर्म ही भूल गया हूँ। हे भगवान! हे धर्म स्वरूप! मैं तेरे धर्म की शरण में पड़ा हूँ। मुझे धर्म का पथ सुझा दो, बस इतनी विनती लाया हूँ।

8. मैं ‘मैं’ को भूला, ख़ुद को भूला, अब अपने तन की बागडोर तुम्हीं को सौंप कर जीना चाहता हूँ।

9. इस तन ने मेरा साथ तो छोड़ दिया है, इसे तेरी शरण में धरता हूँ। जिस राह पर उचित समझो इसे ले जाओ।

10. इस बुद्धि ने भी मेरा साथ छोड़ दिया है। इस बुद्धि पर भी तुम ही राज्य करो, मेरी बुद्धि भी तुम्हारी शरण पड़ी है।

माम् शाधि’ :

आप मुझे शिक्षा दीजिये। आप स्वयं मुझे बताईये कि मुझे क्या करना चाहिये? जो आप कहोगे, मैं वही करूँगा।

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