Chapter 2 Shloka 47

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।४७।।

Your right is only to perform action

and not to its fruits.

Do not be attached to inaction,

nor act only for the fruit.

Chapter 2 Shloka 47

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।४७।।

Your right is only to perform action and not to its fruits. Do not be attached to inaction, nor act only for the fruit.

Little one! Your right is only to perform action, because your aim is:

1. The attainment of the Atma.

2. The practice of divine qualities.

3. Transcendence of the body consciousness.

4. To engage in selfless action – nishkam karma.

5. This practice is possible only when you do perform action.

6. The practice of renunciation of doership is through action.

7. A life imbued with yagya is only possible if you perform action in the spirit of yagya.

8. The ego can be vanquished only with the practice of humility.

9. Desirelessness can be practised only by discharging one’s duty diligently.

10. Give of your body, mind and intellect – only then can you realise the Truth.

11. The proof of your internal state lies in your daily deeds.

Renounce all desire for the fruit of action

a) The individual who is bound by even the slightest desire for the fruit of action can never transcend the body.

b) If the desire for the fruit of one’s deeds persists, divine qualities cannot be inculcated.

c) How can you be a gunatit if you aspire for any fruit or any quality as a result of interaction of gunas?

d) How can you become a gunatit if you are affected by any quality?

e) If you seek the fulfilment of your likes, how can you rise above duality? How can you transcend your likes and dislikes?

You have no right to the fruit of action.

a) Who knows whether victory or defeat awaits you?

b) Who knows what result your efforts will produce? Destiny has already carved the future – what you receive will be in accordance with destiny and none can say what it will be.

c) What is not in your fate, will elude you, you cannot prevent it.

d) All that is in your hands is your effort at the present moment. So act in accordance with dharma today, and let destiny take its course. To set your mind on the outcome of your deeds, is foolishness.

Do not become attached to inaction.

1. The performance of one’s duty is more important than mere sentiment.

2. To give proof of Truth in daily living is necessary.

3. Practice the inculcation of divine qualities in your daily actions.

4. If you relinquish action and run away from duty, how can you practice what the Scriptures enjoin?

5. You may claim to know the Supreme, but that does not mean you have attained that state.

6. That Supreme One cannot be known except by One who has become That.

7. How can you ever give proof of your inner state without the performance of deeds?

8. Proof has to be given in life. Your life has to match your knowledge, or else you live in illusion.

9. Knowledge has to be put into practice in the world and in your own life.

In order to practice renunciation of the body idea, give your body in the service of others. It is imperative to be in touch with people if you have to practice divine qualities. You can prove that you are a gunatit only by living amongst gunas and yet remaining untouched by them! You can prove your internal equanimity only by living in adversity as joyously as you do in congeniality.

If you are constantly dwelling on your bodily needs and status, you cannot know That Supreme One. He who craves for the fruits of his deeds, becomes mired in greed. When he does not receive the fruit for which he longs, he becomes angry.

Little one! If you aspire to be an Atmavaan, always perform whatever action is required in any given situation. If you keep the Lord as your witness in every deed, you will never go wrong. You have to offer your body to the Lord – then whether you incur profit or loss, do not pay any heed. Always remain firm in the performance of your duty and dharma.

अध्याय २

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।४७।।

शब्दार्थ :

१. कर्म में ही तेरा अधिकार है,

२. फल में अधिकार नहीं है तुम्हारा,

३. कर्मफल हेतु कर्म न करो,

४. अकर्म में भी तेरा संग नहीं होना चाहिये।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! कर्म पे है अधिकार तेरा, तुझे :

1. आत्म तत्व को पाना है।

2. दैवी गुण का अभ्यास करना है।

3. तन सों उठ जाना है।

4. सदा निष्काम भाव से कर्म करने का अभ्यास करना है।

5. अभ्यास तब ही हो सकेगा, जब तू कर्म करेगी।

6. तनत्व भाव त्याग का अभ्यास भी तो जीवन में ही हो सकता है।

7. यज्ञमय जीवन यज्ञ किये ही हो सकता है।

8. अहं मिटाव भी जान लो, झुक झुक के ही हो सकता है।

9. चाह रहितता का अभ्यास कर्तव्य करने से ही हो सकता है।

10. तन दान दो, मन दान दो, बुद्धि दान दो, तब ही सत् जान सकोगे।

11. जीवन में, दिनचर्या में, कर्म राही प्रमाण देख कर ही आपकी स्थिति का पता चलता है।

फल की चाहना छोड़ दे :

क) फल चाहना से बन्धा जीव तन से नहीं उठ सकता।

ख) गर तन के लिये कुछ भी फल चाहते हो तो तन से उठना असम्भव है।

ग) गर चाहना फल की है तो दैवी गुण कभी नहीं आयेंगे।

घ) गुण प्रभाव से कोई फल चाहते हो अथवा फल में कोई गुण चाहते हो तो गुणातीत कैसे हो पाओगे?

ङ) यदि कोई भी गुण अभी तुझे प्रभावित करते हैं तो तुम गुणातीत कैसे हो पाओगे?

च) रुचि के कारण यदि फल चाहते हो तो द्वन्द्वों से कैसे उठोगे? तब तो रुचिकर से आपको संग हो जायेगा।

छ) गर रुचि ही प्रधान रही तो रुचि से कैसे उठ पाओगे? रुचि अरुचि से तुम उठ नहीं सकोगे।

फिर फल पर तेरा अधिकार नहीं :

1. जय मिले पराजय मिले कौन जाने?

2. परिणाम कर्म का क्या होगा, कौन जाने?

3. रेखा निर्माण हो चुका, आपको तो रेखा के अनुकूल ही मिलना है।

4. जो मिलना है मिल जायेगा, पर क्या मिलेगा, यह कौन कह सकता है?

5. जो जाना है निश्चित जायेगा, उसे तुम रोक नहीं सकते।

6. आधुनिक पर ही तेरा अधिकार है इसलिये इस पल धर्मयुक्त कर्म कर। जो होना है होता ही जायेगा, उस पर ध्यान धरना मूर्खता है।

अकर्म से संग तुम मत करो :

1. भावना से कर्तव्य श्रेष्ठ है।

2. जीवन में सत्त्व का प्रमाण देना ज़रूरी है।

3. दिनचर्या में अपने कर्मन् में परम स्थिति का अभ्यास करो।

4. कर्तव्य से पलायन करने से क्या बनेगा?

5. यदि कर्म छोड़ दोगे तो अभ्यास कहाँ करोगे?

6. बातों में कहोगे ब्रह्म को जान लिया, जिसे कोई जान नहीं सकता, उसे जान लिया परन्तु इससे स्थिति कभी नहीं पाओगे।

7. उसको तो वही जाने, जो वैसा ही हो जाये और वैसा ही करे।

8. प्रमाण तो जीवन का चाहिये।

9. जीवन ज्ञान समान ही चाहिये, वरना भ्रम में ही रह जाओगे।

10. ज्ञान का अभ्यास जहान में चाहिये और अपने जीवन में चाहिये।

तनत्व भाव से उठने का अभ्यास करने के लिये तन किसी को दे दो। दैवी गुण के अभ्यास के लिये जन सम्पर्क अनिवार्य है। गुणातीत का प्रमाण तुम गुणों में रह कर ही दे सकते हो। स्थित प्रज्ञता का प्रमाण तुम विपरीतता में रह कर ही दे सकते हो।

गर नित्य अपने तन का और तनो व्यवस्था का ही ध्यान लगा रहे तो जीव भगवान के तत्व को नहीं जान सकता। फल की चाहना करने वाला लोभी बन जाता है और जब वांछित फल नहीं मिलता तो क्रोधी भी बन जाता है।

किन्तु नन्हीं! तुझे तो आत्मवान् बनना है। तुम्हारे लिये तो इतना ही काफ़ी है कि जैसी भी परिस्थिति आये, उसमें जो भी कर्म करना ज़रूरी हो, वह करते जाना। गर भगवान के साक्षित्व में कर्म करोगी तो ठीक ही करोगी। तुझे अपना तन भगवान के लिये देना है, उसमें लाभ हुआ या हानि हुई, इस पर ध्यान न धरना। अपने धर्म तथा कर्तव्य पर नित्य दृढ़ रहना।

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