Chapter 6 Shloka 46

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक:।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।४६।।

A Yogi is superior to the Tapasvi or ascetic;

he is also superior to the Gyani

or those well versed in sacred knowledge.

The Yogi is superior to those who perform actions;

therefore Arjuna, become a Yogi.

Chapter 6 Shloka 46

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक:।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।४६।।

Bhagwan is now recounting to Arjuna the merit and the glory of yoga:

A Yogi is superior to the Tapasvi or ascetic; he is also superior to the Gyani or those well versed in sacred knowledge. The Yogi is superior to those who perform actions; therefore Arjuna, become a Yogi.

Tapas (तप) – Forbearance

1. The ability to bear opposition.

2. The fortitude to tolerate that which is uncongenial.

3. The ability to maintain one’s mental equilibrium in adverse situations.

4. The ability to maintain one’s composure in the face of abuse and cruelty.

5. The power to bear the intensity of sadhana and intolerable inflictions.

Forbearance is the natural quality of a true ascetic.

Gyan (ज्ञान) – Knowledge

A Gyani is one:

a) who knows the difference between the Atma and anatma – the real and the unreal;

b) who possesses knowledge of spirituality;

c) who possesses knowledge of Brahm;

d) who has achieved the complete knowledge of yoga.

The Lord says, “O Arjuna, the Yogi is far superior to a Gyani.”

Karma (कर्म) – Action

a) Deeds of the body.

b) Deeds can be selfless.

c) Deeds can be performed with a motive.

d) Actions can be performed as a worship.

e) Actions can be performed for the fulfilment of desire.

The Lord says, the Yogi is far superior to those who perform actions.

Little one, first understand the connotation of yoga.

1. The Yogi renounces his body idea.

2. He identifies himself completely with the Atma.

3. How then can he claim the actions of the body to be his own?

4. And how can he claim the knowledge of the intellect to be his own?

5. How can he claim the tolerance exhibited by his mind?

a) Every single deed performed by a Yogi can be termed as yoga of action.

b) His relationship with all beings is the yoga of love.

c) Every word that leaves his lips is a manifestation of the yoga of knowledge.

d) In fact, every aspect of the Yogi’s life illuminates spiritual living – or Adhyatam.

e) The body of the Yogi is not in fact his own. It can be called a blessing of Prakriti to mankind.

f) That body is indeed divine.

Thus it is said that the Yogi is far greater than the one who practices tapas, the one who performs deeds, or the one who possesses great knowledge.

Little one, it could also be explained thus: once the Yogi is united with the Atma, what remains is a divine being. The mind of the Yogi has merged into the Supreme Incarnation of divinity.

Karma, tapas and gyan – all these are left far behind. The Yogi embodies these attributes in any case.

अध्याय ६

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक:।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।४६।।

अब भगवान अर्जुन को योग की श्रेष्ठता तथा महिमा बताते हुए कहने लगे कि :

शब्दार्थ :

१. तपस्वियों से योगी श्रेष्ठ हैं

२. और ज्ञानियों से भी (योग) श्रेष्ठ है,

३. कर्म कर्ताओं से भी योगी श्रेष्ठ है,

४. इसलिये अर्जुन! तू योगी बन।

तत्व विस्तार :

तप :

तप को प्रथम समझ ले। तप का अर्थ है :

क) विपरीतता को सहने की शक्ति।

ख) अरुचिकर को सहने की शक्ति।

ग) कष्टप्रद परिस्थितियों में समचित्त रहने की क्षमता।

घ) अपमान तथा निर्दयता को सहने की शक्ति।

ङ) कठोर साधना तथा असह्य प्रहार सहने की शक्ति।

तितिक्षा तपस्वी का गुण है।

ज्ञान :

ज्ञानी को भी अब समझ लो :

ज्ञानी वह होता है,

1. जिसे आत्मा अनात्मा का ज्ञान हो।

2. जिसे अध्यात्म का भी ज्ञान हो।

3. जो शब्द ब्रह्म को जानता हो।

4. जो योग को जानता हो।

भगवान कहते हैं कि, ‘हे अर्जुन! ज्ञानी से योगी श्रेष्ठ होते हैं।’

कर्म :

क) कर्म तन के कार्यों को कहते हैं;

ख) कर्म निष्काम भी होते हैं;

ग) कर्म सकाम भी होते हैं;

घ) कर्म पूजा अर्थ भी होते हैं;

ङ) कर्म कामना पूर्ति के लिये भी होते हैं।

भगवान कहते हैं कि कर्मियों से भी योगी श्रेष्ठ हैं।

नन्हीं! योगी के योग को तू प्रथम समझ ले।

1. योगी अपने तनत्व भाव को ही छोड़ देता है।

2. योगी अपने आपको आत्मा से एक रूप कर देता है।

3. फिर वह तन के कर्म कैसे अपना सकता है?

4. फिर वह बुद्धि का ज्ञान कैसे अपना सकता है?

5. फिर वह मन की सहिष्णुता को कैसे अपना सकता है?

क) योगी का हर कर्म कर्म योग ही कहलाता है।

ख) योगी का हर जीव से सम्पर्क प्रेम योग ही कहलाता है।

ग) योगी का हर वाक् ज्ञान योग ही होता है।

घ) योगी के जीवन का हर पहलू अध्यात्म पर प्रकाश डालने वाला होता है।

ङ) योगी का तो तन उसका अपना होता ही नहीं, वह तो मानो प्रकृति का विभूति रूप हो जाता है।

च) वह तन तो दिव्य तन कहलाता है।

इस कारण, तपस्वी कर्मियों तथा ज्ञानियों से योगी अतीव श्रेष्ठ है।

नन्हीं! या यूँ कह लो, योगी का मिलन आत्मा से हो गया और वह आत्मा ही हो गया, बाकी भगवान रह जाते हैं। उसका मन परम पुरुष पुरुषोत्तम का ही होता है।

कर्म, तप, ज्ञान, ये सब काफ़ी नीचे की बातें रह जाती हैं। योगी स्वयं कर्म, तप और ज्ञान का स्वरूप तथा रूप होते हैं।

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