अध्याय ६
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते।।२२।।
अब भगवान योगी की स्थिति के विषय में कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. जिसे उपलब्ध करके, (योगी) उससे अधिक दूसरा कोई लाभ नहीं मानता,
२. जिसमें स्थित होकर वह दारुण दु:ख से भी विचलित नहीं होता।
तत्व विस्तार :
– योगी जब इस आत्यन्तिक आनन्द को पा लेता है,
– अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है,
– अपने आप में आप संतुष्ट हो जाता है, तब वह इस लाभ से अधिक लाभदायक किसी को नहीं मानता।
यानि तब उसके लिये :
क) अन्य कुछ भी प्राप्तव्य नहीं रहता।
ख) अन्य कुछ भी ज्ञातव्य नहीं रहता।
ग) संसार कुछ भी महत्व नहीं रखता।
घ) संसार निर्रथक हो जाता है।
ङ) संसार रहे या न रहे, एक ही बात है
च) तब वह अपने सुख के लिये अपने तन मन अथवा बुद्धि पर आश्रित नहीं रहता।
छ) उसका अपना स्वरूप प्रेमघन हो जाता है, तब वह प्रेम की याचना क्यों करे?
ज) उसका अपना स्वरूप ज्ञानघन का है, तब वह ज्ञान की याचना क्यों करे?
झ) उसका अपना स्वरूप आनन्दघन का है, तब वह आनन्द की याचना क्यों करे?
ञ) वह स्वयं अध्यात्म स्वरूप हो जाता है, अब वह साधना क्या करे?
फिर भारी से भारी दु:ख भी उसे चलायमान नहीं करते।
नन्हीं! यह बात भी सच है, क्योंकि
1. दु:ख तो शरीर को कष्ट देते हैं और वह तन को अपना मानते ही नहीं।
2. दु:ख मन को कष्ट देते हैं और वह मन से संग करते ही नहीं।
3. दु:ख कामनाओं की अपूर्ति से होता है और वह कामना पूर्ति चाहते ही नहीं।
4. दु:ख वियोग का होता है, किन्तु इनका योग तो नित्य अमर, अक्षर आत्मा से हो गया है जहाँ से वियोग का प्रश्न ही नहीं उठता।
नन्हीं! जब जीव आत्मा में खो जाता है, या यूँ कहो, आत्मवान् हो जाता है, तब वह एकत्व में स्थित हो जाता है। स्थूल में वह सबका हो जाता है किन्तु उसका किसी पर भी अधिकार नहीं रहता। वह नित्य अकेला ही होता है।