अध्याय ६
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषत:।
त्वदन्य: संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते।।३९।।
अर्जुन कहते हैं भगवान से :
शब्दार्थ :
१. हे कृष्ण! मेरे इस संशय को पूर्णतय: आप ही निवृत्त कर सकते हैं,
२. क्योंकि आपके सिवाय दूसरा कोई इस संशय को छेदन करने वाला मिलना सम्भव नहीं है।
तत्व विस्तार :
अर्जुन कहते हैं, ‘हे भगवान! मेरा संशय निवारण करो! आपके बिना कोई भी इसका निवारण नहीं कर सकता है।’
अर्जुन भगवान के चरणों में बैठे, आर्त भाव से भगवान से आश्वासन चाह रहे हैं, कि :
1. कहीं राहों में योग भ्रष्ट हो गया,
2. कहीं राहों में पथ छूट गया,
3. कहीं राहों में मोह ग्रसित हो गया,
4. कहीं राहों में मन विचलित हो गया,
5. कहीं राहों में विषय आसक्त हो गया,
6. कहीं राहों में तुम्हारा आश्रय छूट गया,
7. कहीं राहों में साधना के यत्न शिथिल हो गये,
तो मेरा क्या बनेगा?
अर्जुन आज साधना का राज़ जानना चाहते हैं। अर्जुन यह जानना चाहते हैं कि योग भ्रष्ट की गति क्या होती है? अर्जुन भी तो सत् पथिक तथा महा ज्ञानवान् थे। अर्जुन भी घबरा कर किंकर्तव्य विमूढ़ हो गये थे। अर्जुन भी तो अपना स्वभाव भूल गये थे। अर्जुन भी तो मोह ग्रसित हो गये थे। इसलिये वह अपने ही संशय के समाधान के लिये यह प्रश्न पूछ रहे थे।