अध्याय ६
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।।५।।
अब भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. आत्मा से आत्मा का उद्धार करे,
२. आत्मा को अधोगति में न पहुँचाये,
३. क्योंकि आत्मा ही अपना मित्र है,
४. और आप ही अपना शत्रु है।
तत्व विस्तार :
भगवान कहते हैं, जीव को चाहिये कि वह अपना उद्धार स्वयं करे और अपना ही शत्रु न बने। जीव स्वयं ही अपने कर्म बन्धन तोड़ सकता है।
देख नन्हीं!
क) जीव स्वयं ही अपने कर्म बन्धनों को काट सकता है।
ख) जीव ख़ुद ही अपने को जीवन बन्धन से विमुक्त कर सकता है।
ग) जीव आप ही अपने पाप रूपा बीजों का उन्मूलन् कर सकता है।
घ) जीव स्वयं ही अपने दु:खों का नितान्त अभाव कर सकता है।
ङ) जीव स्वयं ही अपनी तड़प, व्याकुलता तथा पीड़ा को मिटा सकता है।
च) जीव आप ही अपनी कामनाओं से मुक्ति पा सकता है।
छ) जीव अपने आपको स्वयं ही नित्य तृप्त बना सकता है।
ज) जीव स्वयं ही अपने क्षोभ तथा शोक को मिटा सकता है।
झ) जीव अपने आपको स्वयं ही नित्य आनन्द स्वरूप बना सकता है।
ञ) जीव स्वयं ही अपने आपको नित्य निर्दोष बना सकता है।
ट) जीव आप ही नित्य समचित्त की स्थिति पा सकता है।
ठ) जीव स्वयं ही गुणातीत की स्थिति भी पा सकता है।
ड) जीव अपने आपको भगवान स्वरूप भी बना सकता है।
सो भगवान कहते हैं कि जीव अपनी आत्मा को अधोगति में न पहुँचाये।
1. क्यों अपने आपको गिराते हो?
2. क्यों अपने आपको ठुकराते हो?
3. क्यों अपने आपको तुम दु:खी करते हो?
4. क्यों अपने आपको अधोगति दिलवाते हो?
5. क्यों अपने आपको मोह पूर्ण मूर्ख बनाते हो?
6. अपने शत्रु आप स्वयं ही क्यों बन गये हो?
7. अपने आपको इतना न गिराओं कि अपने आपकों स्वयं तबाह कर दो।
भगवान कहते हैं कि आपका अपना आप ही आपका बन्धु है, और आपका अपना आप ही आपका शत्रु है।
क) जब आपने ही अपना साथ नहीं दिया तो औरों को दोष देना मूर्खता है।
ख) जब आपने ही अपने आपको गिरा दिया तो आप ही का दोष है।
ग) आप स्वयं नित्य प्रकाश स्वरूप थे, अन्धकार में अपने आपको रखते हो।
घ) आप स्वयं नित्य ज्ञान स्वरूप, अपने आपको अज्ञान में रखते हो।
ङ) आप स्वयं नित्य आनन्द स्वरूप, अपने आपको दु:ख में रखते हो।
च) आप स्वयं नित्य तृप्त स्वरूप, अपने आपको नित्य अतृप्त रखते हो।
छ) आप स्वयं निर्विकार स्वरूप, अपने आपको विकारों में रखते हो।
ज) आप स्वयं नित्य निर्दोष स्वरूप, दोषों तथा पापों से अपने आपको बांधते रहते हो।
आपको पुरुषोत्तम बनना था, आप असुर बन गये हो। यह सब आपने अपने आपके साथ स्वयं ही किया है। इतनी शत्रुता तो आप अपने शत्रु से भी नहीं करते जितनी आपने अपने आप के साथ की है। भगवान कहते हैं :
1. आप अपने ही मित्र बनकर अपना उद्धार कीजिये।
2. आप अपने आपको आत्मवान् बनाईये।
3. अपने आपको पुन: अपने अविनाशी स्वरूप में स्थित कीजिये।
4. आप अपने विशुद्ध चेतन स्वरूप को पुन: पा जाईये।
5. आप पुन; अपने आपको ब्राह्मी स्थिति में स्थित कीजिये।
यह सब आप ही के हाथ में है, आप सब कुछ कर सकते हैं।