Chapter 6 Shloka 30

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।३०।।

He who sees Me in all beings

and all beings as existing

within Me (the Universal Self),

never loses sight of Me;

and I never lose sight of him.

Chapter 6 Shloka 30

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।३०।।

Now Bhagwan says:

He who sees Me in all beings and all beings as existing within Me (the Universal Self), never loses sight of Me; and I never lose sight of him.

The Atma Self

Here Bhagwan is referring to His Universal Essence as the Atma. “He who views Me, the Atma, as pervading all creation and sees all resting in Me – the Atma, such a one, focused upon Me one-pointedly, is never hidden from My view, nor do I ever remain invisible for him.”

Where naught remains but the Atma, there only the Atma is visible in all directions. Such a one perceives all beings as abiding in the Atma. He knows that the Atma in all beings is one and the same, and there is naught in the world like the Atma. Atma, Brahm, call it by any name – the entire world rests in That Whole Atma. Creation, its sustenance and its dissolution, all occur within the Atma.

Here, the Lord speaks of that indivisible, indestructible Essence. The Atmavaan who knows this, is one with the Lord. He is completely identified with the Lord and possessed of His divine nature. It could be said that he is the Lord Himself.

Then how can the Atma be separate from the Atma? How can the Atma remain invisible to the Atma? When both are one, to talk of unison is also meaningless.

The nature of the Atmavaan is Adhyatam

The Atmavaan’s nature is identical to the Lord’s nature – Adhyatam. His life is the light that reveals the practical application of knowledge and the eternal values. The life of such an Atmavaan is scriptural knowledge embodied and proof of the knowledge of the Scriptures.

Little one, such an Atmavaan is indeed the Lord Himself! Whosoever comes before such a one is acknowledged as the Atma embodied. Such a one has no doubt that it is the Atma that abides in the body of all beings. Therefore he identifies readily with all at a practical level. He is able to go to the level of each one and knows that the essence of Advaita or non-duality lies in the unity of the Atma in all. Such a one sees the rest of the world as a play of gunas or attributes.

Knowledge of the play of qualities

Qualities interact with each other. Knowing this, the enlightened one does not blame anyone because he knows that the Atma is blameless and blemishless and gross qualities are a product of nature. He knows, too, that the mind and intellect are veiled by these qualities and thus the intellect is blinded. The Atmavaan does not enter into conflict with the blind, therefore their concepts and their intellect do not perturb him. He goes to their level and acting like them, he presents proof of his union with the Atma Self.

The Atmavaan’s love and his knowledge are revealed in his invincible silence towards himself. This silence is his insignia – his definition. This silence in fact is his very essence.

अध्याय ६

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।३०।।

अब भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में मुझको ही देखता है

२. और सबको मुझमें ही देखता है,

३. उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता,

४. और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

तत्व विस्तार :

आत्म स्वरूप :

यहाँ भगवान अपने सर्वव्यापक आत्म स्वरूप की बात कह रहे हैं कि, ‘जो पुरुष मुझ आत्मा को ही सर्वत्र आच्छादित देखता है और सबको मुझ आत्मा में ही स्थित देखता है, मेरे में एकाकी भाव से स्थित होने के कारण वह मुझसे अदृश्य नहीं होता और मैं, आत्मा, उससे अदृश्य नहीं होता हूँ।’

जहाँ आत्मा के सिवा कुछ रहा ही नहीं, वह चहुँ ओर आत्मा को ही देखता है। वह सबको आत्मा में ही स्थित देखता है। वह जानता है कि आत्मा सबमें एक ही है, समान ही है, आत्मा के समान और कुछ भी नहीं। आत्मा कहो या ब्रह्म कहो, एक ही बात है। उस परिपूर्ण आत्मा में पूर्ण सृष्टि स्थित है। उस पूर्ण में ही सब उत्पत्ति स्थिति तथा लय होता है।

भगवान उस अखण्ड, अक्षर तत्व की बात कह रहे हैं। ऐसा आत्मवान् तो भगवान के साथ एक ही है। वह तो भगवान के तद्‍रूप हो चुका है और भगवान का सजातीय हो चुका है। ऐसा आत्मवान् तो भगवान के समान ही होता है, वह तो भगवान ही है।

फिर आत्मा आत्मा से अलग क्या होगा? फिर आत्मा आत्मा से अदृश्य क्या होगा? जब एकत्व में एक ही हो गये, तब मिलन भी क्या होगा?

आत्मवान् का स्वभाव – अध्यात्म :

ऐसे आत्मवान् का स्वभाव अध्यात्म ही होगा। ऐसे आत्मवान् का जीवन नित्य अध्यात्म तथा ज्ञान विज्ञान पर प्रकाश डालने वाला ही होगा। ऐसे आत्मवान् का जीवन शास्त्रों की प्रतिमा और शास्त्रों का प्रमाण ही होगा।

नन्हीं! ऐसा आत्मवान् तो भगवान ही है। देख नन्हीं! जो भी आत्मवान् के सामने आये, उसे वह आत्मा ही मानते हैं, उसके देह में देही को आत्मा जानते हैं। इसमें उन्हें कोई संशय नहीं होता। इसी कारण वह व्यावहारिक स्तर पर हर जीव के तद्‍रूप हो जाते हैं। वह हर जीव के स्तर पर जा पहुँचते हैं। वह हर जीव को आत्म स्वरूप मानते हैं। वह जानते हैं कि आत्मा के एकत्व में ही अद्वैत का राज़ निहित है। बाकी संसार को वह गुणों का खिलवाड़ जानते हैं।

गुण खिलवाड़ का ज्ञान :

गुण गुणों में वर्तते हैं, यह जानकर वह किसी जीव को बुरा भला नहीं कहते क्योंकि वह जानते हैं कि आत्मा तो सर्वथा निर्दोष है और स्थूल गुण प्राकृतिक रचना हैं। वह यह भी जानते हैं कि मन और बुद्धि गुणों से आवृत्त हैं, इस कारण बुद्धि अन्धी हो गई है। आत्मवान् अन्धों से नहीं भिड़ते, इस कारण उनकी मान्यतायें या बुद्धि उनको विचलित नहीं करती। वह उन्हीं के स्तर पर जाकर, उन्हीं के समान वर्तते हुए, आत्मवान् के तत्व को प्रमाण सहित दर्शाते हैं।

उनका अपने प्रति अखण्ड मौन ही उनका प्रेम है, उनका ज्ञान है, उनकी परिभाषा है; उनकी व्याख्या है और वह मौन ही उनका स्वरूप है।

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