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Chapter 6 Shloka 15
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस:।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।१५।।
Thus constantly striving for the attainment
of the Supreme, that Yogi of emancipated mind,
ever abiding in Me, attains
the everlasting peace of supreme Nirvana.
Chapter 6 Shloka 15
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस:।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।१५।।
Now Bhagwan says:
Thus constantly striving for the attainment of the Supreme, that Yogi of emancipated mind, ever abiding in Me, attains the everlasting peace of supreme Nirvana.
Little Sadhika! The Lord now defines the fruit received by the Yogi who has reached the zenith of his endeavour. Such a one exercises full control over his mind and makes every effort to find union with the Atma. In course of time he achieves the state of supreme Nirvana or emancipation.
Understand once more the endeavour of such a Yogi:
1. He has understood the knowledge of Sankhya. He now renounces the anatma and makes all efforts to unite himself with the Atma.
2. He knows that the body is a tool of Prakriti and that he himself is the Atma.
3. He wishes to become an Atmavaan and embody that attitude in life.
On the path of Yoga
a) Such a one progresses towards the Atma, having aligned himself with his divine lineage.
b) All his actions are dedicated at the feet of the Lord.
c) His mind is focused on the Lord.
d) He lives in the presence of the Lord all the time.
e) He has surrendered his body along with all its sense faculties to the Lord.
Little one, the path of yoga is the path of Love. The path of yoga is a path of self-surrender and of forgetfulness of self. It is a path of mergence in the Beloved and of translating the qualities of That Supreme Beloved into one’s life.
The Yogi, absorbing himself in the Atma, Brahm or the Supreme Lord, forgets himself in ordinary, everyday living and transcends the body idea. He is established in the Supreme Atma and attains the tranquillity and peace which are attributes of one who has achieved final emancipation. In other words, when no memory of the body remains, he attains supreme peace. Then his body belongs completely to the Lord.
Niyat maanasah (नियत मन)
a) A mind which has been brought under one’s control.
b) A disciplined mind.
c) A mind which is mindful of its duty and dharma.
d) A mind devoid of thought and resolve, which is united with the Supreme.
Little one, he whose mind is under his control, accomplishes yoga easily. The Lord says, “Such a self controlled practicant attains Supreme Nirvana through mergence in Me and discovers innate peace.”
Nirvana (निर्वाण)
1. Nirvana is the state of one who has attained liberation whilst still alive.
2. When the body idea is completely annihilated, the jiva attains Nirvana.
3. The Atmavaan dwells in eternal Nirvana.
4. When the ‘I’ ceases to identify with the body and merges in the Atma, the state of Nirvana has been achieved.
5. Nirvana is liberation.
6. The renunciation of the anatma and identification with the Atma is a sign of Nirvana. Little one, the disappearance of the ‘I’ is Nirvana.
The Lord says, “That Yogi abides in Me.” Such a one, who has renounced his body idea and has established himself in the Atma, dwells in peace.
Little one, it is natural for the Atmavaan to attain peace because:
a) The mind becomes restless only in relation to the body.
b) The mind of one who constantly seeks bodily protection is never at peace.
c) The mind of one who is ever endeavouring for self establishment can never be peaceful.
d) The mind becomes disturbed due to the antics of ‘I’ and ‘mine’.
When you do not consider yourself to be the body, you will never feel disturbed on this account. It will make no difference then if the body receives bouquets or brickbats, benefit or harm. Even the life and death of the body will become meaningless for you. Then you will always, spontaneously and naturally, be in a state of total peace.
अध्याय ६
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस:।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।१५।।
अब भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. इस प्रकार अपने को निरन्तर परम उपलब्धि का अभ्यास कराता हुआ,
२. वह स्वाधीन मन वाला योगी,
३. मुझ में स्थित होकर,
४. परम निर्वाण रूप शान्ति को पाता है।
तत्व विस्तार :
नन्हीं साधिका! योग युक्त हुए और योग की पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए योगी को जो फल मिलता है, अब भगवान उसके विषय में कहते हैं।
वह योगी मन को संयम में रखकर निरन्तर अपने आपको आत्मा में जोड़ने के यत्न करता है। वह भगवान में स्थित परम निर्वाण रूप शान्ति को पाता है।
पुन: समझ, वह योगी किसका अभ्यास कर रहा है :
क) योगी सांख्य ज्ञान तो समझ गया; वह अनात्मा को छोड़कर आत्मा से मिलन के प्रयत्न कर रहा है।
ख) वह जान जाता है कि तन इत्यादि प्रकृति के अधीन हैं परन्तु वह स्वयं तो आत्मा है।
ग) वह सहज जीवन में आत्मा से योग करना चाहता है, यानि, वह सहज जीवन में आत्मवान् बनना चाहता है।
योग के पथ पर वह :
1. परम के परायण हुआ आत्मा की ओर बढ़ता है।
2. परम में चित्त धरता हुआ सम्पूर्ण कर्म भगवान के चरणों में अर्पित करता है।
3. अपना चित्त आत्म स्वरूप भगवान में धरता है।
4. अहर्निश भगवान के साक्षित्व में ही रहता है।
5. अपने तन को सम्पूर्ण इन्द्रियों सहित भगवान को अर्पित करता जाता है।
नन्हीं! योग का पथ प्रेम का पथ है, आत्म समर्पण का पथ है। योग का पथ अपने आपको सहज में ही भुला देने का, अर्थात् बेख़ुदी का पथ है; अपने आपको अपने प्रेमास्पद में विलीन करने का और अपने प्रेमास्पद के गुणों को अपनाने वाले का पथ है।
आत्मा, ब्रह्म, परमात्मा या भगवान के परायण हुआ योगी अपने सहज जीवन में अपने आपको भुलाता हुआ तनत्व भाव से उठ जाता है और परमात्मा में स्थित हुआ, परम निर्वाण रूपा शान्ति को पाता है। यानि, जब वह तनत्व भाव को भूल जाता है, जब उसे तन के नाते अपनी सुध ही नहीं रहती, तब वह परम शान्ति को पाता है। तब उसका तन मानो पूर्ण रूप से भगवान का हो जाता है।
नियत मन :
नियत मन का अर्थ है :
क) अपने वश में किया हुआ मन,
ख) आत्म संयम पूर्ण मन,
ग) अपने नियन्त्रण में जो मन हो,
घ) धार्मिक कर्तव्य परायण मन,
ङ) संकल्प रहित, योग युक्त मन,
नन्हीं! जिसका मन अपने वश में होता है, वह योग में सहज ही आरूढ़ हो सकता है। यहाँ भगवान कहते हैं, ‘ऐसे नियत मन वाले योगी मुझमें स्थित आत्मा रूपा परम निर्वाण को पाते हैं और परम निर्वाण में निहित शान्ति को पाते हैं।’
निर्वाण :
1. निर्वाण जीवन मुक्त की स्थिति है।
2. जब तनत्व भाव का नितान्त अभाव हो जाये, तब जानो उस जीव ने निर्वाण पद पा लिया।
3. जब आत्मवान् हो जाते हैं, तो वह नित्य निर्वाण पद में स्थित होते हैं।
4. तन के रहते हुए जब ‘मैं’ तन से तद्रूपता त्याग कर आत्मा में विलीन हो जाती है, तब उसे निर्वाण पद में स्थित कहते हैं।
5. मोक्ष को निर्वाण कहते हैं।
6. अनात्मा का त्याग तथा आत्मा में एकरूपता निर्वाण पद का चिन्ह है।
7. नन्हीं! ‘मैं’ का लुप्त हो जाना ही निर्वाण है।
यहाँ भगवान कहते हैं कि ‘वह योगी मुझमें टिक जाता है।’ यानि, जो अपने तनत्व भाव को भूलकर आत्म तत्व में टिक जाता है, वह परम निर्वाण रूप शान्ति को पाता है।
नन्हीं! आत्मवान् शान्ति पूर्ण होगा ही, क्योंकि ;
क) मन तन के नाते ही अशान्त होता है।
ख) तनो संरक्षण चाह बधित का मन अशान्त ही होता है।
ग) मन को स्थापित करने की चाहना वाले का मन अशान्त ही होता है।
घ) ‘मैं’ और ‘मम’ के कारण ही मन अशान्त होता है।
जब आप अपने आपको तन ही नहीं मानेंगे, तो तन के कारण कभी अशान्त भी नहीं होंगे। फिर तन अपमानित हो या तन को मान मिले, आपको कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। तन जिये या मरे, इससे भी आप नित्य अप्रभावित रहेंगे। तन को हानि हुई या लाभ हुआ, आपको इसका भी फ़र्क नहीं पड़ेगा। तब आप स्वत:, सहज में, नित्य शान्त अवस्था में ही रहोगे।