Chapter 6 Shloka 20

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।

यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।२०।।

That state, wherein the mind-stuff is rendered

quiescent, restrained through the practice of yoga,

and when the Supreme Atma is perceived

by the individualised Atma,

being fully satiated in the Atma.

Chapter 6 Shloka 20

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।

यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।२०।।

Defining the state of yoga, the Lord says:

That state, wherein the mind-stuff is rendered quiescent, restrained through the practice of yoga, and when the Supreme Atma is perceived by the individualised Atma, being fully satiated in the Atma.

Little one, now understand further. Subsequent to the continual practice of yoga, when the Yogi:

a)      becomes completely detached from sense objects;

b)      becomes indifferent to the sense faculties;

c)      remains unaffected by his own mind;

d)      is uninfluenced by dualities;

e)      is impartial towards both joy and sorrow;

f)       does not shun involvement in action, nor is excessively attached to abstinence from deeds;

g)      is not even attached to his body, let alone the external world;

h)      remains detached no matter if he receives rejection or praise from the world;

i)        seeks nothing since his mind now rests in the Supreme;

j)        is accomplished in the practice of yoga and naught else remains except the Lord;

k)      transfers the ownership of his body, mind and intellect and only the Lord remains;

l)        is devoid of the ‘I’ and only the Atma remains;

m)    forget the body, mind and intellect and only the Supreme exists; such a Yogi is satiated in the Self.

­­–       He has realised his essence to be the Atma.

­­–       He is completely absorbed in that essence.

­­–       Then the world fades away, even the body is no longer his.

The state of Samadhi

1. He dwells in a continual state of absorption in the Self.

2. He belongs to the whole world.

3. He does not seek recognition for the body because he is asleep towards his physical being. In fact, he seeks nothing from the world for himself. All such desires pertained to the body which he no longer claims as his own.

4. Such a one is perpetually awake towards the needs of the world and performs all such deeds which are required of him.

5. Since he has no further use for his body, the world rules it.

6. Where the ‘I’ once ruled supreme, now the Lord rules that domain since the abdication of the ‘I’.

7. The Kingdom of God is established, not in the world, but in his body and through him.

8. Bound by the Universal law, he is called the Amrit Putra or ‘immortal son’ of the Eternal Father.

9. The world acknowledges him as the Lord Himself and calls him ‘Bhagwan’.

10. Established in yoga, he is ever satiated in the Atma.

He can perceive nothing apart from the Atma. His vision is ever fixed in that Indestructible Supreme Atma.

अध्याय ६

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।

यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।२०।।

अब भगवान योगी के लक्षण आगे बताते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. जिस अवस्था में योग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ चित्त उपराम हो जाता है

२. और जब वह आत्मा से ही परमात्मा को देखता हुआ

३. आत्मा में ही संतुष्ट होता है।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! अब आगे सुन। योग अभ्यास की निरन्तरता से जब योगी,

1. विषयों के प्रति विरक्त हो जाता है;

2. इन्द्रियों के प्रति निरासक्त हो जाता है;

3. निज मन के प्रति निरासक्त हो जाता है;

4. द्वन्द्वों से अप्रभावित हो जाता है;

5. सुख दु:ख के प्रति निरपेक्ष हो जाता है;

6. प्रवृत्ति से द्वेष नहीं करता और निवृत्ति से संग नहीं करता;

7. स्थूल जग का संग तो दूर रहा; अपने तन से भी संग नहीं करता।

8. तब, जग प्रहार या सराहना किया करे, वह तो उदासीन ही रहता है।

9. अपने मन से भी वह संग नहीं करता।

10. मन, जो परम में टिक गया, वह मन भी अब कुछ नहीं माँगता।

11. जब योगाभ्यास सफल हुआ, तब वहाँ भगवान के बिना कुछ नहीं रह जाता।

12. जब तन भगवान का हो गया; मन भी तो भगवान का होगा; बुद्धि भी तो भगवान की होगी, फिर केवल भगवान ही रह गया।

13. या यूँ कह लो, ‘मैं’ गया, बाकी आत्मा ही रह गया।

14. तन, मन, बुद्धि भूल गये, केवल परम ही रह गया।

ऐसा योगी, आत्मा में तुष्ट होता है।

क) उसने आत्म स्वरूप अपना जान लिया।

ख) वह आत्म स्वरूप में मस्त रहता है।

ग) तब जग की बात ही कहाँ रहती है, उसका तो तन ही नहीं रहा।

समाधि अवस्था :

1. वह नित्य समाधि में बसता है।

2. उसके लिये जग नहीं रहा, वह पूर्ण जग का हो जाता है।

3. क्योंकि वह अपने तन के प्रति सो गया, इसलिये उसे तन का मान नहीं चाहिये। अपने लिये उसने जग से कुछ लेना नहीं होता, जग से कुछ पाना नहीं होता, जग से कुछ प्रयोजन नहीं होता। वह सब तो तन के नाते था, अब तन ही उसका नहीं रहा, तो वह किसी से क्या माँगे?

4. जग के लिये वह नित्य जागता रहता है।

5. जग के लिये वह सम्पूर्ण काज कर्म करता रहता है।

6. जब उसने अपना तन छोड़ दिया तो जग उसके तन पर राज्य करता है।

7. पहले जहाँ ‘मैं’ का राज्य था, अब ‘मैं’ का अभाव हो जाने के कारण मानो वहाँ राम राज्य हो गया।

8. जग में नहीं, उसके तन पे राम तत्व का राज्य हो जाता है और उस राही मानो भगवान की स्थापना हो जाती है।

9. विधान बधित वह अमृत पुत्र कहलाता है।

10. उसे जग भगवान ही कहता है।

11. योग में वह स्थित हुआ, तब वह आत्मा में ही संतुष्ट रहता है। या कहें, अभी द्रष्टा है और वह आत्मा को देख रहा है।

नन्हीं! वह तो आत्मा के सिवा कुछ देखता ही नहीं। उसकी दृष्टि तो मानो अखण्ड रूप से परमात्मा में टिक जाती है।

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