Chapter 6 Shloka 3

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।

योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते।।३।।

Engaging in actions is the means

for that Muni who wants to attain Yoga,

and restraint is the mark

of the one who has attained Yoga.

Chapter 6 Shloka 3

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।

योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते।।३।।

Now the Lord once again describes the importance of actions in yoga and the method whereby one can accomplish yoga.

Engaging in actions is the means for that Muni who wants to attain Yoga, and restraint is the mark of the one who has attained Yoga.

Action is the operative factor in the attainment of the state of yoga:

1. Action is the means to attain yoga.

2. Success in yoga is impossible without action.

3. Action is the mainstay of yoga.

4. Action is that medium which will, surely and without fail, establish an individual in yoga.

Little one, understand clearly. Actions are performed by all – and the Lord has specified action to be the mainstay of yoga. Then why is it that everyone does not become a Yogi?

The actions of a Yogi

Those established in yoga:

a)  perform deeds with a view to achieving union with Brahm;

b)  act towards achieving union with the Atma;

c)  act to become free from the body idea and the intellect which is partial to the body;

d)  act to fulfil the purpose of the Supreme;

e)  act in identification with the Supreme;

f)   do not perform actions for the fulfilment of selfish purposes or for self establishment;

g)  offer all their actions at the Lord’s feet;

h)  perform all deeds with the Lord as their witness;

i)    perform all actions selflessly and devoid of attachment.

Sham (शम)

Sham is described here as the mark of one who is united with the Supreme. Sham means:

a) to be at peace;

b) to be devoid of all thoughts – positive or negative;

c) to be ever joyous;

d) to possess a healthy mind;

e) to be silent within;

f) to be devoid of desire;

g) to be patient and forbearing.

The Lord says, it is through sham that the Yogi achieves selflessness and becomes detached. Thus does he become devoid of any personal plans for himself.

The Lord is clarifying here that it is impossible to be established in yoga without being established in selflessness. If the mind is constantly preoccupied with thoughts and plans for selfish ends, yoga is impossible. Therefore it is said that for an aspirant of yoga, both sham and action are imperative.

अध्याय ६

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।

योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते।।३।।

अब भगवान पुन: योग में कर्म की उन्नति, तथा योग सिद्धि की विधि बताते हुए कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. योग आरूढ़ होने की इच्छा वाले मुनि के लिये कर्म साधन कहा जाता है।

२. और उस योग पर ‘चढ़े हुए’ का ‘शम’ ही हेतु कहा जाता है।

तत्व विस्तार :

अब भगवान कहते हैं कि योगारूढ़ होने का, कर्म ही कारक है। योग के लिये कर्म आवश्यक है।

1. योगारूढ़ होने के लिये कर्म ही हेतु हैं;

2. योगारूढ़ होने के लिये कर्म ही साधन है;

3. कर्म बिना योग सफ़ल नहीं हो सकता;

4. कर्म ही योग का अवलम्बन है;

5. कर्म ही वह कारक है जो साधक को निश्चित रूप से योग रूपा स्थिति में स्थित कर सकता है।

नन्हीं! यहाँ स्पष्ट समझ ले कि कर्म तो संसार में सभी करते हैं और भगवान ने कर्म को ही योग का साधन कहा है, तो फिर सब योगी क्यों नहीं होते?

योगी के कर्म :

योगारूढ़ जीव :

क) ब्रह्म से मिलन अर्थ कर्म करते हैं।

ख) भगवान से मिलन अर्थ कर्म करते हैं।

ग) आत्मा से मिलन अर्थ कर्म करते हैं।

घ) तनत्व भाव त्याग अर्थ कर्म करते हैं।

ङ) देहात्म बुद्धि त्याग अर्थ कर्म करते हैं।

च) परम अर्थ कर्म करते हैं।

छ) परम परायण होकर कर्म करते हैं।

ज) स्वार्थ पूर्ति के कारण कर्म नहीं करते।

झ) अपनी स्थापना अर्थ कर्म नहीं करते।

ञ) अपने अखिल कर्म भगवान के चरणों में अर्पित करते हैं।

ट) अपने अखिल कर्म भगवान के साक्षित्व में करते हैं।

ठ) अखिल कर्म निष्काम भाव से करते हैं।

ड) अखिल कर्म संग रहित होकर करते हैं।

शम :

‘शम’ को योगारूढ़ का हेतु कहा है :

शम का अर्थ है :

1. शान्त होना।

2. संकल्प विकल्प रहित होना।

3. प्रसन्न चित्त होना।

4. स्वस्थ चित्त होना।

5. आन्तर में मौन होना।

6. आन्तर में कामना रहित होना।

7. धीरज धारण करना।

भगवान कहते हैं, शम की राह से ही योगी निष्काम स्थिति को पाते हैं और निरासक्त हो जाते हैं। शम की राह से ही योगी निजी प्रयोजन रहित हो जाते हैं।

यहाँ भगवान दर्शा रहे हैं कि बिना निष्काम भाव में स्थिति के योग में स्थित नहीं हो सकते। यदि मन में हर पल अपने स्वार्थ के योजन बनते रहे तो योग में सफ़ल होना असम्भव है। इस कारण कहते हैं कि योगारूढ़ के लिये ‘शम’ तथा ‘कर्म’ अनिवार्य हैं।

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