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Chapter 6 Shloka 6
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।६।।
The Atma of That Self Realised Soul who
has conquered his own self, is his friend;
but it is the enemy of one who
has not thus controlled the self.
Chapter 6 Shloka 6
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।६।।
Little one, the Lord now says to Arjuna:
The Atma of That Self Realised Soul who has conquered his own self, is his friend; but it is the enemy of one who has not thus controlled the self.
The Atma as a friend
1. That which can transform you into an Atmavaan.
2. That which renders you faultless, blameless and free of moha.
3. That which helps you transcend raag and dvesh and which annihilates attachment.
4. That which destroys ignorance and unites you with the Supreme.
5. That which makes you view duality impartially.
6. That which frees you of all despondency and helps you to be unaffected by all attributes.
7. That which fills you with divine qualities.
8. That which elevates you from the human state to Godhood.
You are Light Itself. Just remove the veil that has fallen over you and recognise your true Eternal Self. If you do not do even this, you are your worst enemy.
Anatma (अनात्मा)
1. He who has not conquered his own self, is his own enemy.
2. He who identifies himself with the inert objects of the world and considers himself to be similar, is anatma (non-Atma).
3. He who identifies himself with the inert body and thus considers himself to be only inert matter, is anatma.
4. He who identifies himself with the sense organs and considers himself to be nothing more than these, is anatma.
5. He who is addicted to the inert objects of the material world and considers them to be all important, is anatma.
He who becomes dependent on these gross objects inevitably forgets his true essence. It is this attachment and identification with the gross that generates moha. It augments the body idea and enmeshes the individual in desire, anger and greed. Thus the individual is filled with the fear of death and separation from the objects he loves. He becomes insecure, anguished and is filled with sorrow. Being ever unsatiated, he is full of aberrations.
It is then that the individual begins to degrade himself and becomes completely forgetful of his true Self. Thus identified with the gross body, he is verily anatma.
a) When body attachment takes place, it is the ‘I’ that identifies itself with the body.
b) When attachment with the mind takes place, it is the ‘I’ that identifies itself with the mind.
c) When attachment with the sense organs takes place, it is the ‘I’ that identifies itself with the sense organs.
d) When attachment with the sense objects take place, it is the ‘I’ which becomes dependent on the objects of the world.
The body, mind, sense organs and sense objects are all inert – they are all anatma or non-Atma.
When the ‘I’ identifies with these, the individual automatically becomes inimical to himself. He engages himself in the accumulation of gross objects to ensure self establishment and self protection, and thus loses his peace of mind.
The enemy
Little one:
1. That which causes sorrow is your enemy.
2. That which takes away your eternally joyous Essence is verily your enemy.
3. How can that which causes distress be your friend?
4. That which engenders remorse and agony in your mind cannot be your friend.
However, the strange thing is, it is not the world that makes you unhappy; the cause of unhappiness is you yourself. Whether one receives recognition or insult from the world, nothing can affect the individual whose mind becomes a friend instead of a foe.
Little one, understand this again – your enemy is that which:
a) robs you of your peace and joy;
b) is your opponent;
c) is the cause of injury to you;
d) is the cause of your destruction;
e) snatches away your rights;
f) attacks you surreptitiously.
It is the mind that behaves like an enemy towards you.
1. It knows your weaknesses and is bent on ruining you.
2. It is nurtured in your home and yet it turns against you.
3. It takes the support of your own intellect and learns ways and means to disregard what you say.
4. It gains strength from you and then steals away your happiness.
Therefore little one, know this mind to be your enemy. Yet, if the mind nurtures love for the Lord, it will become your friend. When the mind is absorbed in the Supreme you will abide in eternal bliss. Then know the mind to be your friend.
अध्याय ६
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।६।।
नन्हीं! आगे भगवान अर्जुन से कहने लगे कि :-
शब्दार्थ :
१. जिस जीवात्मा ने आत्मा को जीत लिया है,
२. उस आत्म पुरुष का आत्मा,
३. अपना आप मित्र है।
४. अनात्मा का आत्मा,
५. शत्रुवत् शत्रुता में ही वर्तता है।
तत्व विस्तार :
आत्मा ही मित्र है, पहले इसे समझ ले! मित्र वह ही है :
1. जो आपको आत्मवान् बना दे।
2. जो आपको निर्विकार बना दे।
3. जो आपको निर्दोष बना दे।
4. जो आपको मोह रहित बना दे।
5. जो आपको राग द्वेष से परे कर दे।
6. जो आपका संग मिटा दे।
7. जो आपका अज्ञान मिटा दे।
8. जो आपको परम से मिला दे।
9. जो आपको निर्द्वन्द्व बना दे।
10. जो आपको उद्विग्नता रहित बना दे।
11. जो आपको गुणातीत बना दे।
12. जो आपको दैवी सम्पदा पूर्ण कर दे।
13. जो आपको इन्सान से भगवान बना दे।
आप स्वयं प्रकाश स्वरूप हैं; अपने ऊपर से परदा हटा दें और अपना नित्य प्रकाश स्वरूप पहचान लें। यदि आप अपने लिये इतना भी न करें, तो ख़ुद को अपना नित्य वैरी ही जानिये।
अनात्मा :
क) जिसने अपने आपको नहीं जीता है, वह स्वयं अपना ही वैरी है।
ख) जो जड़ विषयों के संयोग से अपने आपको जड़ माने बैठा है, वह अनात्मा है।
ग) जो जड़ तन के तद्रूप होकर अपने आपको जड़ माने बैठा है, वह अनात्मा है।
घ) जो इन्द्रियों के तद्रूप होकर अपने आपको इन्द्रियाँ माने बैठा है, वह अनात्मा है।
ङ) जो जड़ विषयों में आसक्त होकर उन विषयों को ही सर्व श्रेष्ठ माने बैठा है, वह अनात्मा है।
जो जड़ विषयों पर आश्रित हो जाता है, वह स्वरूप भूल जाता है।
जड़ विषयों से आसक्ति तथा तद्रूपता के कारण जीव :
1. मोह को प्राप्त होता है;
2. तनत्व भाव को प्राप्त होता है;
3. ममत्व भाव में बन्ध जाता है;
4. काम, क्रोध तथा लोभ से ग्रसित हो जाता है;
5. मृत्यु भय तथा वियोग भय से पूर्ण हो जाता है;
6. स्वयं को नित्य असुरक्षित मानता है;
7. व्याकुल तथा शोकातुर हो जाता है;
8. नित्य अतृप्ति के कारण विकारवान् हो जाता है।
तब वह अपना पतन स्वयं करने लग जाता है और अपने स्वरूप को बिलकुल भूल जाता है। जड़ तन के तद्रूप हुआ जीव अनात्मा ही होता है।
क) जब तन से संग हुआ तब ‘मैं’ तन के तद्रूप हो गई।
ख) जब मन से संग हुआ तब ‘मैं’ मन के तद्रूप हो गई।
ग) जब इन्द्रियों से संग हुआ तब ‘मैं’ इन्द्रिय रूप हो गई।
घ) जब विषयों से संग हुआ तब ‘मैं’ विषयों पर आश्रित हो गई।
यह तन, मन, इन्द्रियाँ, विषय, सब अनात्मा, यानि जड़ ही होते हैं।
जब ‘मैं’ इनके तद्रूप होती है तब जीव अपने स्वरूप का स्वयं ही शत्रु बन जाता है। तब वह स्थूल तनो संरक्षण तथा स्थापना अर्थ स्थूल विषय संग्रह में नित्य प्रवृत्त हो जाता है और अपना सहज सुख चैन गंवा बैठता है।
शत्रु :
नन्हीं!
क) जो आपको नित्य दु:ख दे, वह आपका वैरी ही है।
ख) जो आपके नित्य आनन्द स्वरूप को हर ले, वह आपका मित्र कैसे हो सकता है?
ग) जो आपको बेचैन कर दे, वह आपका मित्र कैसे हो सकता है?
घ) जो आपके मन में तड़पन तथा क्षोभ उत्पन्न कर दे, वह आपका मित्र कैसे हो सकता है?
परन्तु मज़ेदार बात यह है कि आपको संसार दु:खी नहीं करता, आप स्वयं ही अपने आपको दु:खी करते हैं। यदि यह मन आपसे वैर न करके दोस्ती लगा ले तो जग से मान मिले, अपमान मिले या हानि लाभ हो, इससे आपको कोई फ़र्क नहीं पड़ सकता।
नन्हीं! ले, फिर से ‘शत्रुवत् शत्रुता में ही वर्तता है’ इस को समझ ले :
शत्रु उसे कहते हैं :
1. जो आपके सुख चैन को हर ले।
2. जो आपका विनाशक हो।
3. जो आपका प्रतिपक्षी हो।
4. जो आपका घाती हो।
5. जो आपका हक़ छीनना चाहे।
6. जो चुपके से आप पर वार कर दे।
यह मन आपके साथ शत्रुवत् व्यवहार करता है।
क) यह आपके घर का भेदी होकर, आपको ही लूट रहा है।
ख) यह मन आपके ही घर में पल कर आपको ही धोखा देता है।
ग) यह आपकी बुद्धि द्वारा तरीके सीख कर आपके ही कहने में नहीं रहता।
घ) यह आपसे ही समृद्धि पाकर आपके ही सुख को हर लेता है।
इस कारण नन्हीं! इसे ही अपना शत्रु मान लो। किन्तु, यदि यह मन भगवान से प्रीत करने लग जाये तो यह आपका मित्र बन जाता है। तब यह मन अपने आपको परम में विलीन करके आपको नित्य आनन्द में बसा देता है। तब इसे अपना मित्र जानो।