अध्याय ६
तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।२३।।
अब भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. दु:ख के संयोग से वियोग ही योग जानना चाहिये।
२. वह योग निश्चय से तथा निर्भय हुए चित्त से
३. अनुष्ठान किये जाने योग्य है।
तत्व विस्तार :
भगवान कहते हैं कि योग दु:ख से वियोग है।
क) नितान्त दु:खों से नि:संगता को ही योग कहते हैं।
ख) दु:खों के नितान्त अभाव को योग जानना चाहिये।
ग) दु:खों में एकरूपता के अभाव को योग जानना चाहिये।
घ) दु:खों से आत्म तद् रूपता के अभाव को योग जानना चाहिये।
ङ) जीव, जो दु:खों से संगम कर बैठता है, उसके नितान्त मिटाव को योग जानना चाहिये।
च) जो दु:खों से वियोग करवा दे, वह योग है।
नन्हीं लाडली! दु:ख तन के नाते होते हैं।
दु:ख :
1. रुचिकर न मिले, तब होता है।
2. रुचिकर बिछुड़ जाये, तब होता है।
3. अरुचिकर मिल जाये, तब होता है।
4. कामना की पूर्ति न हो, तब होता है।
5. दु:ख से मन क्षुब्ध होता है
किन्तु यह सब तब तक होता है, जब तक :
क) आप अपने आपको तन मानते हो।
ख) आपका मन विषयों से संग करता है।
ग) आपका मन विषयों पर आश्रित होता है।
घ) आपका मन विषयों के परायण होता है।
जब मन किसी विषय से उठ जाता है तब वह विषय मिले या न मिले, उसका दु:ख नहीं होता।
योग की ओर प्रवृत्त हुए साधक का मन भगवान, परमात्मा या ब्रह्म से संग कर लेता है। जब परम में चित्त टिकने लगता है तब विषय संयोग या वियोग दु:ख नहीं देता। जब ध्यान ही विषयों में नहीं रहता, तब दु:ख नहीं होता। इस कारण साधक को कभी दु:ख नहीं होता। वास्तविक दु:ख विषय चिन्तन से होता है। साधक तो निरन्तर अपने प्रेमास्पद् में चित्त धरता रहता है। उसके पास विषय चिन्तन का समय ही नहीं होता। इस कारण वह दु:ख रहित होता है। फिर, जो आत्मावान् ही हो जाता है, वह तो अपने तन को मानो भूल ही जाता है। वह तन तथा स्पर्शमात्र विषयों का चिन्तन करता ही नहीं। उसको दु:ख क्या होगा? वह अपने आत्म स्वरूप में नित्य स्थित रहता है। वह तो अपने तन से भी नित्य वियोगी हो जाता है।
नन्हीं! भगवान कहते हैं, ‘यह योग ही पाने योग्य है; उसका निश्चय से अनुष्ठान करना चाहिये।’
फिर भगवान कहते हैं कि ‘अनिर्विण्ण चेतसा’ होकर इस योग का अनुष्ठान करना चाहिये।
‘निर्विण्ण’ का अर्थ है :
1. भयपूर्ण होना;
2. शोकपूर्ण होना;
3. संशयपूर्ण होना;
4. खिन्न मन वाला होना;
5. मन का उकता जाना;
6. घृणा युक्त होना;
‘अनिर्विण्ण’ का अर्थ है, ‘निर्विण्ण’ के विपरीत गुणों वाला।
भगवान कहते हैं कि :
क) भय रहित होकर योग के पथ का अनुष्ठान करना चाहिये।
ख) संशय रहित होकर योग का अनुष्ठान करने योग्य है।
ग) निश्चयपूर्ण होकर योग का पथ अनुष्ठान करने योग्य है।
घ) अथक होकर तथा धैर्य से योग के पथ का अनुष्ठान करना चाहिये।
क्योंकि इस योग में ही आत्यन्तिक सुख निहित है, इस योग में ही दु:खों से वियोग निहित है।