Chapter 6 Shlokas 40, 41

श्री भगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति।।४०।।

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा:।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।४१।।

Lord Krishna said to Arjuna:

That one can never be destroyed in this world nor in the world hereafter, for, one who performs meritorious deeds can never suffer misfortune. One who is thus diverted from Yoga, attains the realms of the meritorious deeds and after residing there for a long period, he is born to a pious and distinguished family.

Chapter 6 Shlokas 40, 41

श्री भगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति।।४०।।

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा:।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।४१।।

With great love, Lord Krishna said to Arjuna, ‘Dear one! O Arjuna, do not fear!’ Because:

That one can never be destroyed in this world nor in the world hereafter, for, one who performs meritorious deeds can never suffer misfortune. One who is thus diverted from Yoga, attains the realms of the meritorious deeds and after residing there for a long period, he is born to a pious and distinguished family.

The Lord reassures Arjuna:

1. A person who has performed good deeds is never destroyed.

2. Meritorious deeds are never wasted.

3. An act of virtue can never lead to degradation.

4. A doer of virtue can never be destroyed – neither in this world nor in any other world.

The Yoga bhrashta (योग भ्रष्ट), or one who is diverted from the path of Yoga

Those who are distracted from the path of yoga attain the realm of meritorious souls. They attain a noble environment,

a) where people are habituated in the performance of virtuous deeds;

b) where notably great deeds are performed;

c) where people adhere to dharma and their duty;

d) where people perform divine deeds;

e) where pure action and interaction are prevalent;

f) where a life of yagya is incumbent;

g) where all tread the enlightened path.

The yoga bhrashta is born to such a God-fearing family where he once again obtains the opportunity, the climate and the means to engage himself in the attainment of yoga. In such a family, the aspirant is also an automatic recipient of divine knowledge.

Such a one receives all the requisite means and good fortune to insure his succession to yoga. He is presented with such situations where;

a) he can engage himself in meritorious deeds;

b) he can disseminate love;

c) he can perform great actions;

d) he is able to practice patience, endurance, forgiveness, compassion and mercy;

e) he can practice charity and learn to perform his religious duties;

f) he can practice gratitude, tolerance and patient courage;

g) he can learn to be large hearted;

h) he can practice detachment and impartiality.

Such individuals are equipped with adequate knowledge and they also have before them the correct example or precept. They possess the circumstances as well as the means to perform meritorious deeds. With all these facilities, it is easy for such a one to progress on the path of yoga.

Such a one gradually receives all the requisite impetus:

a) He receives the company of virtuous souls.

b) He receives scriptural support.

c) He attains wealth to support his deeds.

d) He meets with situations which enable him to perform virtuous actions.

e) What else can he ask for? It is then up to him to do as he wishes.

अध्याय ६

श्री भगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति।।४०।।

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा:।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।४१।।

बहुत प्रेम से कृष्ण अर्जुन से कहने लगे, ‘हे प्रिय! हे अर्जुन! तू न घबरा!’ क्योंकि :

शब्दार्थ :

१. उस पुरुष का न इस लोक में और न परलोक में ही कभी नाश होता है,

२. क्योंकि कल्याण पूर्ण कर्म करने वाले की कभी दुर्गति नहीं होती।

३. योगभ्रष्ट लोग पुण्यवान् के लोक को प्राप्त होकर,

४. वहाँ बहुत काल तक वास करके, शुद्ध आचरण वाले श्रीमान् पुरुष के घर जन्म लेते हैं।

तत्व विस्तार :

भगवान कहते हैं कि :

क) पुण्य करने वाले का कभी नाश नहीं होता।

ख) पुण्य कर्म का कभी नाश नहीं होता।

ग) पुण्य कर्म कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।

घ) पुण्य कृत का न इस लोक में नाश हो सकता है और न ही किसी अन्य लोक में नाश हो सकता है।

योग भ्रष्ट :

योग करते हुए, पथ से विमुख हुए लोग पुण्यवानों के लोक पाते हैं; यानि श्रेष्ठ लोक पाते हैं, जहाँ दीर्घ काल से लोग,

1. पुण्य कर्म करते हों।

2. श्रेयस्कर कर्म करते हों।

3. धर्म परायण कर्म करते हों।

4. कर्तव्य कर्म करते हों।

5. भागवत् कर्म करते हों।

6. शुद्ध आचरण और वर्तन पूर्ण हों।

7. यज्ञमय जीवन पूर्ण हों।

8. शुक्ल पक्ष अनुयायी हों।

ऐसे श्रीमान्, भागवत् परायण कुल में योग भ्रष्टों का जन्म होता है, जहाँ उन्हें पुन; योग में प्रवृत्त होने का मौका, वातावरण, समिधा तथा ज्ञान भी मिल जाता है।

यानि, संयोग ही संयोग मिल जाते हैं ताकि उनका योग से वियोग न हो। समिधा में परिस्थिति ऐसी आ जाती है जहाँ,

1. वे जहान का कल्याण कर सकें।

2. वे प्रेम का अभ्यास कर सकें।

3. वे श्रेय काज कर सकें।

4. वे सहनशीलता का अभ्यास कर सकें।

5. वे क्षमा, दया, करुणा का अभ्यास कर सकें।

6. वे दान, धर्म, अनुष्ठान का अभ्यास कर सकें।

7. वे कृतज्ञता का अभ्यास कर सकें।

8. तितिक्षा, सहिष्णुता का अभ्यास कर सकें।

9. विशाल हृदय का अभ्यास कर सकें।

10. निसंगता और निष्पक्षता का अभ्यास कर सकें।

क) उनके पास ज्ञान भी होता है।

ख) उनके पास प्रमाण भी होता है।

ग) उनके पास परिस्थितियाँ भी होती हैं।

घ) उनके पास श्रेय करने की समिधा भी होती है, जिसके आसरे वह योग के पथ पर बढ़ सकें।

जीवन में शनै: शनै: उन्हें सब कुछ मिलता है।

1. साधु सम्पर्क भी मिलता है,

2. शास्त्र सम्पर्क भी मिलता है,

3. धन समिधा भी मिलती है,

4. श्रेय करने की परिस्थितियाँ भी मिलती हैं।

और क्या चाहेंगे वह! फिर मर्ज़ी उनकी है; वह जैसा चाहें, करें।

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