अध्याय १८
स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।
स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।४५।।
भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. अपने अपने कर्म में लगा हुआ
२. मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है।
३. जिस प्रकार से अपने कर्म में परम सिद्धि को पाता है,
४. वह तू मुझसे सुन!
तत्त्व विस्तार :
नन्हीं! भगवान यहाँ जीव से कहते हैं:
क) कोई भी ऊँचा या नीचा नहीं होता।
ख) श्रेष्ठ या न्यून जीव पर आरोपित उपाधियाँ हैं।
ग) कर्म सबके ही श्रेष्ठ होते हैं।
घ) काज, कर्म तो करने ही होते हैं, किसने कौन सा किया, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है?
ङ) जिसने कृषि का काज किया, वह भी उतना ही श्रेष्ठ है, जितना कि क्षत्रिय का काज करने वाला, क्योंकि :
– अन्न ही उत्पन्न न हुआ तो क्षत्रिय जीयेगा कैसे?
– अन्न ही उत्पन्न न हुआ तो क्षत्रिय लड़ेगा कैसे?
– अन्न ही उत्पन्न न हुआ तो जीव जीयेंगे कैसे?
– कृषि का काज तो अनिवार्य है।
– कृषि का काज तो होना ही होगा।
– कृषि का काज तो प्राणाधार है।
गर प्राण ही न रहे, तो अन्य वर्ण जीते कैसे रहेंगे? इस कारण यह जान लो कि कर्म में श्रेष्ठता या न्यूनता नहीं होती।
भगवान कहते हैं कि अपने कर्म में लगा हुआ जीव ही,
1. सिद्धि पा सकता है।
2. पावन हो जाता है।
3. प्रतिष्ठा को पाता है।
4. समृद्धि को पाता है।
5. सुख को पाता है।
6. विलक्षण क्षमता को पाता है।
7. अपने कर्म में लगा हुआ जीव जीवन मुक्त हो जाता है।
पुनः समझ मेरी जाने जान्!
1. कोई भी कार्य श्रेष्ठ नहीं होता।
2. कोई भी कार्य न्यून नहीं होता।
3. कर्म कर्म ही होता है और जीवन के लिए हर प्रकार के कर्म ज़रूरी हैं।
4. जो भी किसी का सहज कर्म हो, उसी से सिद्धि मिल जाती है।
5. जो भी जीवन में आपका सहज काज हो, उसी से सिद्धि मिल सकती है।
6. जो भी जीवन में आपका वर्ण हो, उसी में सिद्धि मिल सकती है।
जब जीव अपने सहज कर्म कर लेता है, यानि, अपने लिए जो अनिवार्य है, वह कर लेता है, तब भी उसके पास बहुत मूल शक्ति बची रहती है। वह शक्ति औरों के काज के लिए देनी चाहिये, यही जीव का कर्तव्य है।
1. लोग आपसे वही मांगेंगे जो आप कर सकते हैं।
2. लोग आपसे सफ़लता की आस लेकर मदद मांगते हैं।
3. लोग शनैः शनैः आपके सामर्थ्य को पूर्ण रूपेण इस्तेमाल करते हैं।
4. धीरे धीरे आप और भी प्रवीण तथा दक्ष होते जायेंगे।
5. धीरे धीरे आप और भी निरासक्त होते जायेंगे।
जिस काम में आपको सफ़लता मिली है, वही दूसरों के लिये भी कीजिये, जीवन में यज्ञ यही है।
क) अपने सहज काम छोड़ कर दूसरे के धर्म कर्म अपनाने से कुछ नहीं बनता।
ख) अपने सहज काम में जितने दक्ष हो जाओगे, वे काज उतने ही कम समय में समाप्त हो जायेंगे। बाक़ी समय दूसरों को दे दो।
ग) बाक़ी समय में, जिस वस्तु की आपको ज़रूरत है, वही दूसरों के लिये भी उपार्जित करो। जो भी काज वे करवाना चाहते हैं, उसके लिये अपना तन, मन, बुद्धि, और धन दे दो।
घ) अपनी कीमत मत बढ़ाओ, अपने पर प्रतिबन्ध मत लगाओ।
किन्तु याद रहे अपना सहज कर्म करते जाओ।
साधक तथा ज्ञानियों को सहज ही संशय हो जाता है कि कर्म, परम पद की प्राप्ति कैसे करवा सकते हैं?
1. साधारण कर्म उन्हें भगवान से कैसे मिला सकते हैं?
2. साधारण जीवन उन्हें परम पद कैसे दिला सकता हैं?
3. साधारण कर्म उन्हें कर्म फल से कैसे मुक्त करा सकते हैं?
4. कर्म तो बन्धन कारक होते हैं, फिर भगवान कर्म करने को क्यों कहते हैं?
5. छोटे छोटे काम करते हुए परम स्थिति कैसे मिल सकती है?
6. साधारण जीवन में जुटे रहे, तो परम सिद्धि कैसे मिल सकती है? भगवान कहते हैं, ‘लो! तुझे बताता हूँ कि किस प्रकार से कर्म करता हुआ जीव परम पद को पा लेता है।’