अध्याय १८
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु।
प्रोच्यमानशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय।।२९।।
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन!
शब्दार्थ :
१. बुद्धि और धृति का भी गुणों के अनुसार,
२. तीन प्रकार का भेद,
३. सम्पूर्णता से विभागपूर्वक,
४. मेरे द्वारा कहा हुआ सुन!
तत्त्व विस्तार :
बुद्धि :
अब भगवान कहते हैं, ‘बुद्धि की बात बताता हूँ, यानि निर्णयात्मक शक्ति के तीन रंग सुनाता हूँ, सत् असत् दर्शायिनी बुद्धि के तीन गुणों के इस्तेमाल के बारे में बताता हूँ!’
निश्चय करने वाली शक्ति को, यानि द्वौ पक्ष को समचित्त होकर जानने वाली शक्ति को बुद्धि कहते हैं। वह भी तीन प्रकार की होती है। अब भगवान उसे समझाने लगे हैं।
क) जीवन में व्यावहारिक स्तर पर अपने और अन्य जनों में न्यायकर शक्ति,
ख) जो सब जाने और जान सके,
ग) वह जो जाने उससे प्रभावित नहीं हो सके,
घ) जो अपने ही गुणों से प्रभावित न हो,
ङ) जो दूसरों के गुणों से भी प्रभावित न हो,
च) जो कल की बात से प्रभावित हुए बिना आज की किसी बात पर निर्णय दे,
छ) जो जांच पड़ताल करके निर्णय तक पहुँचे,
ज) जो यर्थाथता समझ सके,
झ) जो निर्णयात्मक शक्ति हो,
उसे बुद्धि कहते हैं।
धृति :
अब धृति की समझ ले।
1. बुद्धि के निश्चय को धारण करने वाली, उसे रूप दिलाने वाली धृति ही होती है।
2. किसी भी निश्चय में मानसिक दृढ़ता धृति ही होती है।
3. धृति के बल पर निश्चय स्थापित किया जाता है।
4. धृति मानसिक सहिष्णुता की शक्ति है।
5. धृति धारणा का सहारा है।
6. धृति के बिना जीवन का यज्ञमय बनना असंभव है।
7. धृति निश्चय को मानो अपने अधिकार में ले लेती है और उसके अनुसार इन्द्रियों तथा तन को नियन्त्रित करती है।
8. धृति के आधार पर ही ज्ञान जीवन में उतरता है। धारणा उचित हो या अनुचित हो, यह और बात है। जैसे बुद्धि अज्ञान पूर्ण हो तो अज्ञान पूर्ण निर्णय लेती है, वैसे ही धृति भी त्रैगुण में से किसी भी गुण वाली हो सकती है। अब आगे भगवान बुद्धि और धृति के विभिन्न भेद कहते हैं।