अध्याय १८
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।२०।।
सबसे पहले भगवान ज्ञान के गुण भेद का निरूपण करते हुए कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. जिस ज्ञान से (जीव) ;
२. सब विभक्त भूतों में,
३. एक अविनाशी भाव को अविभक्त देखता है,
४. उस ज्ञान को सात्त्विक कहते हैं।
तत्त्व विस्तार :
नन्हीं! यहाँ भगवान :
– केवल शब्द ज्ञान,
– तर्क वितर्क निपुणता,
– सम्पूर्ण शास्त्र जानने,
– सम्पूर्ण शास्त्र कण्ठस्थ करने की बात नहीं कह रहे हैं।
वह कहते हैं, जिस ज्ञान राही जीवन में जीव,
क) विभक्त दर्शन में एकत्व देखता है,
ख) सबमें आत्म प्रधान देखता है,
ग) परमात्मा ही सब कुछ है, यह जानता है,
घ) सबका आधार एक को ही देखता है,
ङ) श्रेष्ठ न्यून, दोनों का आधार एक ही देखता है,
च) द्वन्द्वन् का आधार भी एक ही देखता है,
छ) परिवर्तनशील जग का आधार, अपरिवर्तनशील को ही देखता है,
वह ज्ञान सात्त्विक ज्ञान है।
सात्त्विक ज्ञान वाला :
1. नश्वर के पीछे अविनाशी तत्त्व देखता है।
2. खण्डित के पीछे अखण्डता को देखता है।
3. अखिल रूप में एक ही रूप को देखता है।
4. विभिन्न कर्तापन अभिमानियों में वास्तविक कर्ता एक को ही देखता है।
5. निवृत्ति या प्रवृत्ति, दोनों में एकत्व देखता है।
6. द्वैत में अद्वैत देखता है।
7. खण्डता में अखण्डता को देखता है।
8. भिन्नता में एकता को देखता है।
नन्हूं! वह दुष्ट तथा सन्त में आत्मा के नाते एकत्व देखता है, समता को देखता है, कर्तृत्व भाव का अभाव देखता है। वह दुष्ट तथा सन्त, दोनों को गुण बधित जानता हुआ उन्हें निर्दोष ही मानता है। वह तो कर्तापन के अभिमान को भी कर्ता नहीं मानता, क्योंकि वह जानता है कि कर्तापन अभिमान भी गुणों के कारण ही होता है।
सात्त्विक ज्ञान तो पूर्ण को अखण्ड ब्रह्म रूप तथा स्वरूप दर्शाता है। सब ही जीव ब्रह्म स्वरूप हैं, ब्रह्म रूप हैं। जड़ चेतन सब ब्रह्म ही हैं, यह वह जानता है। वह केवल ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहता नहीं है, बल्कि और सब ब्रह्म हैं, यह समझता है।
जब जीव अपने आपको भूल जाता है, तब वह भिन्नता में भी एकता को देख सकता है। यहाँ सत्त्व वाले का ज्ञान विज्ञान रूप कहा है। वह जीवन में व्यवहारिक स्तर पर विभक्त पुरुषों में एक अविभक्त अखण्ड सत् देखता है।
भाई! नाम रूप उपाधियाँ हैं, उनके पीछे आत्मा एक है। जीव गुण भेद से अनेकों हैं, किन्तु वे तत्त्व रूप से एक हैं।