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Chapter 1 Shloka 40
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।४०।।
Look little one, in order to support his reasoning,
Arjuna has now begun to sermonise to Lord Krishna!
By destruction of the family,
familial traditions are destroyed;
when dharma thus declines,
adharma begins to grip the family.
Chapter 1 Shloka 40
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।४०।।
Look little one, in order to support his reasoning, Arjuna has now begun to sermonise to Lord Krishna!
By destruction of the family, familial traditions are destroyed; when dharma thus declines, adharma begins to grip the family.
The ascent of adharma
Arjuna’s claim is right that familial traditions are lost with the destruction of the family and that the remaining family is seized by sin. However, Arjuna has not specified the attributes of the family, whose destruction could bring about the annihilation of dharma. If divine qualities predominate in the family, their destruction will inevitably lead to the decline of dharma; however, if the family consists of sinful perpetrators of atrocities, people full of pride, the merciless and unjust, the jealous and greedy, their destruction will unquestionably establish dharma rather than destroy it.
The dharma of a virtuous family
a) A life of righteous conduct.
b) A life replete with the attitude of yagya.
c) A life characterised by Truth and justice.
d) A life that bespeaks endurance, forbearance and charity.
e) A life that adheres to the Lord’s attitude and conduct.
f) A life devoid of pride and ego in which there is sympathy for the other’s problems.
How can the family that does not possess such qualities be acknowledged as ‘great’ or ‘virtuous’?
Arjuna is merely trying to escape from the war and is misusing knowledge for the purpose of self-justification.
1. This is the work of an intellect coloured by moha or attachment;
2. These are typical arguments of an intellect clouded by wrong knowledge and ignorance;
3. This is how bhavana or self-justification helps in absolving the individual of all blame.
This is how each individual tries to save himself from distasteful situations. A sadhak, too, gets enmeshed thus in the web of his own vrittis or mental tendencies. Even though he may be Truth loving, he cannot protect his own intellect from the bondage of his mind. It is imperative for a sadhak to be vigilant about the protection of his dharma, his adherence to the Truth and to see that there is no default in the performance of his duty until he achieves complete detachment towards himself.
However, it is important to remember that man’s duty is towards the Lord. Thereafter, all he does in life will be only duty. In fact, the sadhak’s foremost and only dharma is to have abiding faith in the qualities of the Supreme.
Yes, little one! If a virtuous lineage is destroyed:
a) evil will inevitably prosper;
b) people will cease to be dutiful;
c) love will be forgotten;
d) egoistic pride, ignorance and injustice will prevail;
e) the perpetrators of atrocities and the evil will reign;
f) verily the dharma of the family will be destroyed.
अध्याय १
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।४०।।
देख नन्हीं! निजी समर्थन करने के लिये, अर्जुन मानो भगवान को ज्ञान देते हुए कहने लगे :
शब्दार्थ :
१. कुल का नाश होने से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जायेगा।
२. धर्म के नष्ट होने पर सारे कुल को फिर अधर्म दबा लेता है।
तत्व विस्तार :
अधर्म वर्धन :
बात तो अर्जुन ने ठीक ही कही कि कुल के नष्ट होने से कुल का सनातन धर्म नष्ट हो जाता है और सम्पूर्ण कुल को पाप दबा लेता है; किन्तु उसने यह नहीं कहा कि कैसे कुल के नाश हो जाने से कुल धर्म नष्ट हो जाता है।
साधु कुल क्षय हो जाये तो सच ही धर्म नाश हो जायेगा, किन्तु पाप पूर्ण, अत्याचारी, दम्भ दर्प पूर्ण, निर्दयी तथा क्रोधी, अन्यायी, ईर्ष्या, लोभ पूर्ण, आसुरी गुण पूर्ण कुल अंश के नष्ट होने से धर्म नष्ट नहीं होगा, बल्कि स्थापित हो जायेगा। यदि दैवी गुण पूर्ण कुल अंश नष्ट हो गया, तब अधर्म बढ़ेगा।,
श्रेष्ठ कुल का धर्म तो :
क) सदाचार पूर्ण जीवन होगा।
ख) यज्ञमय जीवन होगा।
ग) सत् तथा न्यायपूर्ण जीवन होगा।
घ) तप तथा सहनशीलता पूर्ण जीवन होगा।
ङ) दान पूर्ण जीवन होगा।
च) भागवत् परायण जीवन होगा।
छ) दम्भ दर्प रहित जीवन होगा।
ज) लोगों के प्रति सहानुभूति पूर्ण जीवन होगा।
जहाँ ये गुण ही नहीं, वह कुल श्रेष्ठ कैसे हो सकता है?
अर्जुन यहाँ पर केवल युद्ध से छुटकारा पाने के यत्न कर रहे हैं इसलिये ज्ञान के ग़लत अर्थ निकाल रहे हैं।
क) मोह पूर्ण बुद्धि ऐसा ही करती है।
ख) अज्ञान आवृत बुद्धि के तर्क वितर्क का यह साक्षात् दर्शन है।
ग) भावना अपने आपको कैसे दोष विमुक्त कर सकती है, अर्जुन की इस विचारधारा को देख कर समझ लो।
हर इन्सान अरुचिकर व्यवस्था तथा परिस्थिति में ऐसे ही अपने आपको बचाने की चेष्टा करता है। साधक भी अपनी वृत्तियों के जाल में ऐसे ही फंसता है। सत् प्रिय होते हुए भी वह अपनी बुद्धि को अपने मन के जाल से बचा नहीं सकता। जब तक वह अपने ही प्रति पूर्ण रूप से उदासीन न हो जाये, साधक के लिये यह ज़रूरी है कि उसका धर्म नष्ट न हो, उसके कर्तव्य में विघ्न न पड़े और वह नित्य सत् का अनुसरण करे।
पर याद रहे, जीव का कर्तव्य भगवान के प्रति होता है। तत्पश्चात् जीवन में जो भी होता है, कर्तव्य ही होता है। परम गुण में श्रद्धा रखना ही साधक का एक मात्र कर्तव्य एवं धर्म है।
हाँ नन्हीं! गर श्रेष्ठ कुल का नाश हो गया तो :
क) आसुरी कुल बढ़ जायेगा।
ख) असुरत्व तब बढ़ ही जायेगा।
ग) लोग कर्तव्य को भूल ही जायेंगे।
घ) जीव प्रेम को भूल ही जायेंगे।
ङ) दम्भ दर्प का वर्धन हो जायेगा।
च) अज्ञानता का राज्य हो जायेगा।
छ) अन्याय की विजय होने लगेगी।
ज) अत्याचारी और दुष्टों का राज्य हो जायेगा।
झ) सच ही कुल धर्म नष्ट हो जायेगा।
अनर्थ हो ही जायेगा।