Chapter 1 Shloka 33

येषामर्थे काङिक्षतं नो राज्यं भोगा: सुखानि च।

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्तवा धनानि च।।३३।।

The grief stricken Arjuna says to the Lord, “We do not want the kingdom, its pleasures or victory. We do not have even a desire to live!”

Those for whom we desired the pleasures of a kingdom and happiness, are standing prepared for battle, having forsaken all expectation of riches and even the desire to live.

Chapter 1 Shloka 33

येषामर्थे काङिक्षतं नो राज्यं भोगा: सुखानि च।

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्तवा धनानि च।।३३।।

The grief stricken Arjuna says to the Lord, “We do not want the kingdom, its pleasures or victory. We do not have even a desire to live!”

Those for whom we desired the pleasures of a kingdom and happiness, are standing prepared for battle, having forsaken all expectation of riches and even the desire to live.

1. It was quite evident to Arjuna that Duryodhana and the Kauravas would not part with anything whilst they were alive.

2. He knew also that the Kauravas would reject Krishna’s plea.

3. They had abandoned Bhishma Pitamah’s suggestion.

4. They had refused to settle this dispute by giving away even five villages.

5. The Kauravas had repeatedly disregarded the humble petitions of the Pandavas.

Abha, this is what happens in our lives:

1. Hatred knows no bounds.

2. Greed has no limits.

3. Jealousy is an obstruction to justice; it makes one blind.

4. One’s desires are endless.

5. The ego’s appetite is never satiated.

6. The craving to retain ones’ supremacy over the other can never be quelled.

7. One’s greed for wealth is also unending.

8. He who is addicted to material enjoyment can never be satiated.

Evil and demoniacal qualities thus mount within us and demoniac attributes infused with likes and dislikes are nurtured within us. Thus we incessantly :

a) think of ways to destroy and torture the other;

b) seek to hurt the other;

c) suppress the other and even contemplate ending another’s life!

This causes:

1. The birth of hatred;

2. The tendency to find fault with the other;

3. The origin of temper in its most terrible form;

4. The growth of atrocities, pretence, and deceit in the world;

5. The increase of hard heartedness, mercilessness, enmity and revenge.

Duryodhana’s nature

The Pandavas knew that Duryodhana and the Kauravas were overflowing with demoniacal tendencies.

a) It was foolish to expect any justice from them.

b) They were wrong doers, evil and merciless.

c) They were immersed in deceit and foul play.

d) They were venomous and full of jealousy and hatred.

e) They were proud of their imaginary greatness and openly showed their arrogance.

The Pandava’s attributes

1. The Pandavas were humble and simple hearted folk.

2. They were lovers of justice and Truth.

3. They were also imbued with divine qualities.

When they saw before them, in the opposing ranks, their own elders and revered ones for whose sake they had borne so much in the past, they were confused about their path of duty. Besides, their own army consisted of their family members.

Arjuna reflected, “Of what use is this kingdom to us if it means the death of members of our own family? If they die, then for whom are we to acquire this kingdom?” In other words, if the Pandava family perishes, who is to enjoy the kingdom?

Such a dilemma arises in the mind of every righteous individual. Sadhaks practising the inculcation of divine qualities tend to evade opposition in any form. In doing so they often forget where their duty lies. They take shelter under false justifications to escape their duty.

Take Ahimsa or non-violence for example:

a) As long as we consider the body to be our own, we are inflicting injury upon the Essence of Brahm which in fact is the true Master of this body. This rejection of Brahm is the annihilation of Truth.

b) Further, if we remain silent when someone hits us, it could be called a practice of non-violence, but to maintain the same silence when someone else is attacked, is a perpetration of violence – for we have silently supported the infliction of atrocity. It is but right to wage war against evil oppression. That is the message of the Gita.

Arjuna made the same mistake that ‘righteous’ people make.

1. He was enmeshed in the external manifestation of right and wrong.

2. He was caught in the external appearance of virtuousness.

3. He was entangled in the bonds of false concepts. In the process, he misinterpreted knowledge so that it became, in fact, ignorance. Whosoever thus misuses knowledge, is lost in words and concepts and does not understand its essence.

Had Arjuna been a true follower of Justice and Truth, personal considerations would have been no obstacles. He would then have fought only for Justice. He would not have been ridden by doubt.

अध्याय

येषामर्थे काङिक्षतं नो राज्यं भोगा: सुखानि च।

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्तवा धनानि च।।३३।।

 

तड़पे हुए तथा अति शोकातुर हुए अर्जुन अब भगवान कृष्ण से कहते हैं कि हम राज्य, सुख या विजय कुछ नहीं चाहते, हम जीना भी नहीं चाहते, क्योंकि :

शब्दार्थ :

१. हम जिनके लिये

२. राज्य भोग और सुख आदि चाहते हैं,

३. वे सब धन और प्राणों की आशा छोड़ कर

४. युद्ध में खड़े हैं।

तत्व विस्तार :

देख नन्हीं! यह सब तो अर्जुन को पहले ही पता था कि :

1. दुर्योधन तथा कौरव पाण्डवों को जीते जी कुछ नहीं देंगे।

2. कौरव कृष्ण की प्रार्थना को भी ठुकरा चुके थे।

3. कौरव भीष्म पितामह को भी ठुकरा चुके थे।

4. कौरवों ने पाण्डवों को पाँच गाँव देने से भी इन्कार कर दिया था।

5. कौरवों ने पाण्डवों की विनय को बार बार ठुकरा दिया था।

आभा! जीवन में यही तो होता है।

1. द्वेष की कोई सीमा नहीं होती।

2. लोभ की कोई सीमा नहीं होती।

3. ईर्ष्या के पास न्याय नहीं होता।

4. ईर्ष्या के पास आँख नहीं होती।

5. कामना का कोई अन्त नहीं होता।

6. अहंकार का उदर कभी नहीं भरता।

7. औरों पर प्रभुत्व पाने का लोभ कभी शान्त नहीं होता।

8. धन का लोभ भी कभी शान्त नहीं होता।

9. चाहना नित्य अतृप्त ही रहती है।

10. भोगैश्वर्य संगी कभी तृप्त नहीं होते।

11. इन्हीं गुणों के कारण और इन्हीं मौलिक प्रवृत्तियों के कारण असुरत्व बढ़ता है। राग द्वेष पूर्ण आसुरी गुण पलने लगते हैं जो :

क) दूसरे को गिराने और तड़पाने की ही सोचते हैं।

ख) दूसरे की हानि ही करते रहते हैं।

ग) दूसरे को दबाने और मारने के यत्न ही करते रहते हैं। इनके कारण :

घृणा का जन्म होता है।

दोषारोपण की वृत्ति बढ़ती है।

क्रोध उत्पन्न होता है और भीषण रूप धर लेता है।

पाखण्ड, धोखा और मिथ्याचार बढ़ते हैं।

कठोरता, निर्दयता और निष्ठुरता के गुण बढ़ते हैं।

दुश्मनी, विद्रोह और बदले की भावना बढ़ती है।

दुर्योधन स्वभाव :

अर्जुन तथा पाण्डव जानते थे कि :

क) दुर्योधन तथा कौरव गण इस आसुरी सम्पदा से भरपूर हैं।

ख) उनसे न्याय की इच्छा रखना मूर्खता है।

ग) वे दुष्ट, दुराचारी और निष्ठुर हैं।

घ) वे छल, कपट युक्त तथा पाखण्डी हैं।

ङ) वे वैमनस्य, दम्भ तथा ईर्ष्या द्वेष, इत्यादि से परिपूर्ण हैं।

पाण्डव स्वभाव :

क) पाण्डव गण झुके हुए तथा सरल हृदय लोग थे।

ख) न्याय प्रिय तथा सत् प्रिय लोग थे।

ग) दैवी सम्पदा पूर्ण लोग थे।

जब उन्होंने अपने ही बुज़ुर्गों तथा नाते बन्धुओं को सामने देखा, तो ‘किंकर्तव्य विमूढ़’ हो गये। जिन बाप दादाओं का लिहाज़ करके उन्होंने जीवन भर कष्ट सहे थे, आज वही उनके सामने युद्ध करने के लिये खड़े हो गये। फिर अपनी सेना में भी तो अपना सारा परिवार सम्मिलित था। सोचने लगे, ‘हमारा अपना कुल भी मर गया और नाते रिश्ते तथा बन्धुओं के कुल भी मर गये, तो फिर हम राज्य किसके लिये करेंगे?’ यानि, गर पाण्डु कुल भी नष्ट हो गया, तब यह राज्य इत्यादि किसके काम आयेगा? सब लोग ही तो इस युद्ध में अपने प्राण और धन मानो अर्पित करके खड़े हैं।

देख नन्हीं! जीवन में हर अच्छे आदमी के मन में यह संशय अनेकों बार उठते हैं। साधक गण तो अधिकांश दैवी सम्पद् का अभ्यास करते हुए, जहाँ भी विपरीतता हो, वहाँ से मुखड़ा मोड़ लेने के यत्न करते हैं और कर्तव्य विमुख हो जाते हैं। मिथ्या सिद्धान्तों का आसरा लेकर वे अपने आपको कर्तव्य विमुक्त कर लेते हैं। उदाहरणार्थ अहिंसा को ही लो :

जब तक हम तन अपना मानते हैं, तब तक मानों हम ब्रह्म तत्व हिंसक ही हैं, क्योंकि या तो यह तन हमारा है, या तन ब्रह्म का है। सत् हनन ब्रह्म की अस्वीकृति में निहित है, यही ब्रह्म की हिंसा है। जब कोई हमें मारे, तब चाहे हम मौन रहें और प्रत्युत्तर में दूसरे को कुछ न कहें, किन्तु जब दूसरे पर अत्याचार होते हों, तब मौन रहना अहिंसा नहीं। तब तो हमारा मौन रहना हिंसक का समर्थन करना है। तब हम हिंसक ही हैं। अत्याचारी तथा पापियों से युद्ध करना ही उचित है। यही गीता का सन्देश है। किन्तु अर्जुन भी वही ग़लती कर गये जो साधुता गुमानी कर जाते हैं। वह:

1. बाह्य उचित तथा अनुचित के झमेलों में फंस गये।

2. साधुता के रूप में फंस गये।

3. मान्यताओं के बन्धन में फंस गये।

यानि ज्ञान को भी अज्ञान बना बैठे। जब भी हम ज्ञान रति हो जाते हैं तो शब्दों में ही रह जाते हैं।

अर्जुन यदि केवल न्याय और सत् के उपासक होते, तब राहों में कोई विघ्न न आता। तब वह केवल न्याय के लिये युद्ध करते, तब मन में संशय भी न उठता।

Copyright © 2024, Arpana Trust
Site   designed  , developed   &   maintained   by   www.mindmyweb.com .
image01