- Home
- Ma
- Urvashi
- Ashram
- The Arpana Ashram
- Universal Family
- Celebrations and Festivals
- The Arpana Family
- Principal Architects
- Inspirational Emblem
- Arpana’s Mission & Activities
- Temple Activities & Discourses
- Publications
- Audio & Video Research Office
- Spiritual Stage Presentations
- A Temple of Human Accord
- Arpana’s Archives & Library
- Visitors Comments
- Arpana Film
- Research
- Service
- Products
Chapter 1 Shloka 36
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन: ।।३६।।
Arjuna now says to Lord Krishna:
O Janardhana! What joy can be obtained
by killing Dhritrashtra’s sons?
We will incur sin
if we kill these marauders.
Chapter 1 Shloka 36
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन: ।।३६।।
Arjuna now says to Lord Krishna:
O Janardhana! What joy can be obtained by killing Dhritrashtra’s sons? We will incur sin if we kill these marauders.
Arjuna refers to Krishna here as ‘Janardhana’. ‘Ardhana’ stands for one who inflicts pain, punishes, troubles, or bestows the fruit of sinful deeds; the destroyer of sin.
Thus Arjuna is calling the Lord a destroyer of sin, the annihilator of sinners and the giver of sorrow to the sinful.
Little one, now understand the term ‘atatai’ or marauder.
1. An atatai is an inveterate sinner – one who performs heinous crimes;
2. One who steals another’s wealth or women;
3. One who administers poison or sets fire to another’s abode is indeed an atatai.
Note little one, Arjuna calls the Lord a ‘Destroyer of sinners – Janardhana,’ yet he says, “We will incur sin if we kill these sinners.” Thus, Arjuna casts the aspersion that Krishna was doing wrong and was a lesser being than himself! Indirectly he was ridiculing Krishna.
Such are the obstacles in the path of a seeker who takes pride in his goodness. So drunk was Arjuna with the wine of his own goodness and saintliness, that he could not recognise Lord Krishna’s basic Essence.
Arjuna’s problem
Had Arjuna supported Sri Krishna’s practical life, he would have understood the full import of His Name. However, it would be incorrect to say that Arjuna did not respect Lord Krishna.
Little one! We too do the same. We do not endeavour to inculcate even those qualities which we ordinarily appreciate. The standards by which we measure ourselves are very different from those we apply to others. Our basic tendencies support our behaviour and deceive us in the bargain! They interpret knowledge erroneously and do not allow its correct translation into our lives. These tendencies distance us from our duty and, taking the support of illusory principles, they endeavour to absolve us from all blame. And like fools we get carried away by our own deceptions.
Little one, our aim should be to forsake these selfish traits and through selfless and magnanimous actions, forget ourselves and live for others. To extricate the oppressed from the grip of the oppressor is the dharma of each being. In such circumstances, it is not sinful to even kill the oppressor.
In the ‘Manusmriti’ Manu says, “Irrespective of whether he is a teacher, a child, an old man or a man of great knowledge, if he is an oppressor, kill him without a second thought.”
These days it is customary to deride everyone as base or as a thief. Those indulging in such criticism themselves possess the same qualities. Members of our own family and we ourselves possess similar negative traits. We must first fight this negativity. It is our dharma to oppose evil until it is destroyed completely. A step towards falsehood is a step away from the Truth. Conversely, to support adharma is to oppose one who is rooted in dharma. To support the unjust is to tacitly distance oneself from justice. One who understands this Truth, will be able to catch the false note in Arjuna’s talk.
Moha implies:
a) a lapse of consciousness;
b) a perplexed state;
c) reality obscured by ignorance;
d) an internal impurity which prevents us from seeing the Truth or imbibing knowledge.
To be in the grip of moha, is to be swayed. Moha is the cause of that mistake which one makes through one’s ignorance.
When the jivatma is attached to the body, then moha is born. Then the body becomes all important to that being. Afflicted by moha he views the entire world through the perspective of his body. His every sight, thought etc. first acknowledges the importance of the body. His likes and dislikes colour all his actions. Moha can only be with one’s own self i.e. the body. If seemingly one is attached to a child or any other person, it is because that individual has some relationship with one’s own body, mind or intellect.
How to eradicate moha?
a) Knowledge can destroy moha. If an individual believes that he is not the body, moha is destroyed.
b) Selfless deeds counteract moha.
c) The practice of yagya, tapas and daan are aids in the annihilation of moha.
d) Moha can be eradicated by one-pointed devotion and unflinching concentration on the Lord.
अध्याय १
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन: ।।३६।।
अर्जुन कहते हैं भगवान कृष्ण से :
शब्दार्थ :
१. हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मार कर हमें क्या प्रसन्नता होगी?
२. इन आततायियों को मार कर तो हमें पाप ही लगेगा।
तत्व विस्तार :
अर्जुन यहाँ कृष्ण को ‘जनार्दन’ कह कर बुला रहे हैं। ‘अर्दन’ का अर्थ है, पीड़ा देने वाला, दण्ड देने वाला, तंग करने वाला, पाप का फल देने वाला, पापी को दण्ड देने वाला, पाप विनाशक।
इस नाते भगवान को अर्जुन पाप विनाशक, पापी जन विध्वंसक और पापियों को दुख देने वाले कह रहे हैं।
नन्हीं! आततायियों के गुण भी समझ ले।
1. महा पाप तथा भीषण अपराध करने वाले,
2. धन तथा स्त्री चुराने वाले,
3. दूसरो को विष पिलाने वाले तथा आग लगाने वाले, आततायी ही हैं।
अब ध्यान दे नन्हीं! अर्जुन भगवान कृष्ण को ‘पाप विध्वंसक, जनार्दन’ के नाम से पुकार कर कहते हैं, “आततायियों को मार कर हमें पाप ही लगेगा। इन्हें मार कर हमें क्या खुशी होगी?”
यह जानते हुए भी कि अर्जुन के मित्र कृष्ण आततायियों को मारने वाले हैं, अर्जुन कृष्ण से ही कहते हैं, “आततायियों को मार कर हमें पाप ही लगेगा।”
यानि, कृष्ण को भी मानो ग़लत समझ रहे हैं, अपने से न्यून ठहरा रहे हैं और कटाक्ष कर रहे हैं। क्यों न कहें कि अर्जुन अपनी साधुता की इतनी मदिरा पी चुके हैं कि वह कृष्ण के स्वरूप को भी नहीं समझ रहे। साधुता अभिमानी साधक की राहों में यही विघ्न है।
अर्जुन की समस्या :
अगर अर्जुन श्री कृष्ण के जीवन का समर्थन करते, तब ही वह इस नाम की सार्थकता को समझ सकते थे। किन्तु इससे यह कहना नहीं बनता कि वह कृष्ण की इज्ज़त नहीं करते थे।
नन्हीं! हम सब भी यही करते हैं। जिन गुणों को हम अनेक बार सराहते भी हैं, उन्हें भी हम अपने में उत्पन्न नहीं करते और अपने जीवन के अभ्यास में नहीं लाते। हम अपने लिये भिन्न तुला रखते हैं और दूसरों के लिये उससे भिन्न ही तुला रखते हैं। हमारी वृत्तियाँ हमारा ही समर्थन कर देती हैं और हमें ही छल लेती हैं। ये ज्ञान को अज्ञान में परिणत कर देती हैं। जो ज्ञान को हमारे जीवन में परिणत नहीं होने देतीं, वे दुर्वृत्तियाँ ही होती हैं। ये दुर्वृत्तियाँ हमें हमारे कर्तव्य से दूर करती हैं। फिर मिथ्या सिद्धान्तों का आसरा लेकर यह हमें दोष विमुक्त करने की चेष्टा करती हैं और हम मूर्खों की तरह अपनी ही बातों में आ जाते हैं।
नन्हीं! हमें अपना स्वार्थ छोड़ कर जीवन को यज्ञरूप बनाना है और अपने आपको भूल कर दूसरों के लिये जीना सीखना है। हमें अन्याय से टकराना ही पड़ेगा क्योंकि वह अन्याय है। पापी के अत्याचार से पीड़ित लोगों को बचाना ही जीव का धर्म है। आततायियों का वध कर देना पाप नहीं।
मनु तो कहते हैं कि :
“गुरु, बाल या बूढ़ा, महाज्ञानी भी यदि आततायी हो तो उसे बिना विचार के मार डालो।” (मनुस्मृति)
देख! आजकल सब लोग संसार को बुरा कहने लग गये हैं। दूसरों को दुष्ट तथा चोर कहने लग गये हैं। एक तो वे स्वयं भी ऐसे ही हैं, फिर ये विभिन्न अत्याचारी भी तो उन्हीं के कुल में भी हैं।
अपने ही कुल में जो आततायी हैं, हमें उन्हीं से लड़ना चाहिये। अपने आप में भी जो आततायी वृत्तियाँ हैं, हमें उन से भी लड़ना चाहिये। जब तक दुष्टता का नाश न हो जाये तब तक इससे लड़ना हमारा धर्म है। असत् से योग सत् से वियोग है। अधर्मी से योग धर्मशील से वियोग है। अन्यायी से योग न्याय से वियोग है।
इसे समझ लो, तो अर्जुन की कथनी में जो ग़लती है, वह समझ आ जायेगी।
मोह का अर्थ है :
चेतना की हानि, मूर्छित होना, उद्विग्नता का होना, अज्ञान से आवृत होना, अशुद्धि का उत्पन्न होना, जिस अशुद्धि के कारण सत्य दर्शन नहीं हो सकते, सत्य समझ नहीं आ सकता, जीव ज्ञान को नहीं समझ सकता, वह मोह है। मोह बहकाये जाने को कहते हैं। मोह मूर्खता में की हुई ग़लती को कहते हैं।
जीवात्मा का संग जब तन से होता है तब मोह का जन्म होता है। तभी जीव अपने को तन समझने लग जाता है और अपने तन को सामने रख कर ही सम्पूर्ण संसार को देखता है। उसके हर दर्शन में, हर किये हुए चिन्तन में अपने तन की ही प्रधानता होती है। उसका अपनी इन्द्रियों से और अपनी रुचि अरुचि से संग होता है।
नन्हीं जान्! यदि समझ सके तो यूँ समझ कि मोह अपने तन से संग के कारण होता है। जो मोह बच्चों से या और किसी रिश्ते नाते से होता है, वह इसलिये है क्योंकि वह आपके तन, मन या बुद्धि से कोई नाता रखता है।
मोह को मिटाने का तरीका भी समझ ले :
क) ज्ञान से मोह का नाश हो सकता है। जब जीव जीवन में यह मान ले कि वह तन नहीं तो मोह नष्ट हो सकता है।
ख) निष्काम कर्म का अभ्यास करते हुए भी मोह नष्ट हो सकता है।
ग) यज्ञ, तप तथा दान का अभ्यास मोह मिटाने के साधन हैं।
घ) भगवान से अटूट प्रेम या एकाकी भाव हो तो जीव मोह से छूट जाता है।