अध्याय १
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।३।।
दुर्योधन अपने गुरु आचार्य द्रोण से कहने लगे :
शब्दार्थ :
१. हे आचार्य,
२. आपके बुद्धिमान शिष्य
३. द्रुपद पुत्र द्वारा
४. व्यूह में खड़ी की गई
५. इस बड़ी भारी सेना को
६. आप देखिये।
तत्व विस्तार :
अब अहंकार स्वरूप दुर्योधन यह कह कर द्रोणाचार्य को भड़काने लगे :
हे आचार्य !
क) सामने पाण्डु पुत्रों की यह सेना देखिये।
ख) सामने युद्ध के लिये खड़ी द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न की सेना रचना देखिये।
ग) ये जो आपके बुद्धिमान शिष्य हैं, इन्हें देखिये।
घ) ये आपसे ही लड़ने आये हैं।
ङ) ये आपका मुकाबला करने आये हैं।
च) ये आपको ही मारने आये हैं।
छ) आपको ही अपनी श्रेष्ठता दिखाने आये हैं।
दुर्योधन ने यह सब कहा :
1. द्रोणाचार्य की पुरानी दुश्मनी जगाने के लिये।
2. द्रोणाचार्य का क्रोध भड़काने के लिये।
3. द्रोणाचार्य को उत्तेजित करने के लिये।
‘द्रुपदपुत्र’कहा, क्योंकि द्रुपद से द्रोणाचार्य की पुरानी दुश्मनी थी।
साधक के लिये सार :
जीवन में जो विपरीत लगे, मन उसे याद करता है, चाहे कितना भी समय बीत जाये। जब वैभव मिले, समझा उसने आप किया, मन उसका दम्भ करता है। “जहाँ हार हुई यह दोष तेरा, जहाँ जीत हुई वह गुण मेरा।”
जीव सहज में सोचता है कि ‘साधना भी मैंने करी’ आज ‘मैं’ को भी मैं ही मिटाने चली। यानि जीव सोचता है कि ‘मैं ही साधना करता हूँ’। ‘मैं’ रूपा अहंकार तथा गुमान में ही स्थित रहता है। जीव इस तन से संग रूपा ‘मैं’ को मिटाते हुए डरता है।