अध्याय १
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिता:।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्त: सर्व एव हि।।११।।
शब्दार्थ :
१. इसलिये सब मोर्चों पर
२. अपनी अपनी जगह स्थित रहते हुए,
३. आप लोग सबके सब ही
४. निस्सन्देह भीष्म पितामह की ही
५. सब ओर से रक्षा करो।
तत्व विस्तार :
दुर्योधन को शंका थी कि कहीं भीष्म पितामह ग़लती न कर जायें और कमज़ोरी न दिखा जायें।
क्योंकि वह :
क) पाण्डवों के शुभ चिन्तक हैं।
ख) उनका मन पाण्डवों के साथ है।
ग) सात्त्विक बुद्धि तथा विवेकपूर्ण विचार सब पाण्डवों के साथ हैं।
घ) धृतराष्ट्र का नमक खाया था, केवल इस कारण वह दुर्योधन के साथ थे।
ङ) दुर्योधन को भीष्म पितामह अच्छा नहीं मानते थे।
च) दुर्योधन को वह अन्यायी जानते थे।
1) भीष्म, पाण्डवों को सत् पथिक मानते थे।
2) वे पाण्डवों को उचित पथ पथिक मानते थे।
3) वे कौरवों की ग़लती भी जानते थे।
4) वे कौरवों का अन्याय भी जानते थे।
5) वे कौरवों की कुटिलता भी जानते थे।
फिर भी वह दुर्योधन के साथ हो गये।
नन्हीं! जीवन में भी अनेक बार ऐसा होता है कि जीव अपने संग के कारण या अपनी मिथ्या कर्तव्य की भावना के कारण ग़लत पक्ष का साथ दे देता है। घरों में तो यह अनेकों बार होता है कि अपने बच्चों या माता पिता के हक़ में हम न्याय कर देते हैं, क्योंकि :
– हमारा वहाँ संग होता है।
– वे हमारे होते हैं।
– हम मिथ्या कर्तव्य से बंधे होते हैं।
न्याय निरपेक्षता :
न्याय निष्पक्ष होता हैं; किन्तु जीव संग के कारण पक्षपात् कर देता है। दूजा जितना मर्जी श्रेष्ठ हो जब अपने बच्चे का सवाल उठता है तो दूसरे की श्रेष्ठता भूल जाती है। कुछ इसी तरह की समस्या भीष्म पितामह की भी थी।
ऐसा व्यक्ति, जब, जिसे वह सत् पथिक मानता है, उससे लड़ने जाये तो वह स्वयं कमज़ोर हो जाता है क्योंकि वह मन ही मन अपने को ग़लत मानता है और सत् पथिक, जो दुश्मन के रूप में भी खड़ा हो, उसे वह ठीक ही जानता है।
दुर्योधन जानते थे कि भीष्म अनेक बार पाण्डवों की मदद करते हैं। इस कारण वह संशयपूर्ण तथा व्याकुल हो गये। इसलिये उसने कहा ‘भीष्म की रक्षा कीजिये।’
क्या जीतेंगे वह, जहाँ अपनी सेना पर ही संशय हो। अपने योद्धा ही प्रतिपक्षी हों, अपने ही मन में पाप हो, अपने ही पाप सताते हों तथा अपनों का आशीर्वाद ही साथ न हो। वहाँ जीत कैसे होगी?