अध्याय ११
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।।१६।।
अर्जुन भगवान से कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. हे सम्पूर्ण विश्व के पति!
२. आपको मैं अनेक बाहु, उदर, मुख और नेत्र वाला,
३. और सर्व ओर अनन्त रूप वाला देखता हूँ।
४. हे विश्व रूप! मैं न आपके अन्त को, न मध्य को, न आदि को देखता हूँ।
तत्व विस्तार :
अद्वैत का ज्ञान पाने के बाद अर्जुन की समझ :
देख नन्हीं! इस पल अर्जुन सम्पूर्ण सृष्टि को भगवान के आन्तर में देख रहे हैं और कहते हैं कि :
1. सम्पूर्ण विश्व के पति तुम ही हो।
2. सम्पूर्ण विश्व आज तुम्हीं में देख रहा हूँ।
3. हे निराकार! आज मैं अखिल रूप तुम्हीं में देख रहा हूँ।
4. हे निराकार! तुझे सर्वाकार रूप देख रहा हूँ।
5. सम्पूर्ण मुख तुम्हारे तुझी में देख रहा हूँ।
6. सम्पूर्ण उदर तुम्हारे, तुझी में देख रहा हूँ।
7. सम्पूर्ण नेत्र तुम्हारे, तुझी में देख रहा हूँ।
8. सम्पूर्ण बाहें तुम्हारी, तुझी में देख रहा हूँ।
9. हे नित्य निराकार! तुझी में सब आकार देख रहा हूँ।
10. हे इन्द्रिय रहित, इन्द्रिय पति, तुझे ही अखिल इन्द्रिय रूप देख रहा हूँ।
11. हे नित्य, अखण्ड अक्षर स्वरूप, तुम्हारा ही विभाजन तुझी में देख रहा हूँ।
किन्तु यह विभाजन भी कैसा। जो तुझी में हो, तुझी में रहे और फिर तुझी में लय हो जाये!
क्योंकि:
क) पूर्ण अखण्ड विश्व रूप तू आप है।
ख) पूर्ण ब्रह्माण्ड में वैश्वानर तू आप है।
नन्हीं! जीवन में तू भी जान ले,
1. परम बिना और कुछ नहीं है।
2. जो मिले, जहाँ मिले उसी का वह रूप है।
3. सबके पीछे केवल भगवान का स्वरूप है।
4. हर मुख, हर उदर उसी ने रचे हैं और उसी में हैं।
वासुदेव ही पूर्ण हैं और उनके अतिरिक्त यहाँ पर कुछ नहीं है।
जीवन में इसको मान लो और इसी का अभ्यास करो। जीवन में निरन्तर जो देखते हो, वह भगवान में हो रहा है, यह जान लो, और इसी सत्त्व में वर्तो।
किसी के बस में कुछ नहीं है, आदि, अन्त, सब वह आप है, मध्य भी भगवान में है। सो बिन आदि बिन अन्त, सब वह आप है।
नन्हीं! जीव जब आत्मा के साथ एकरूपता पा लेता है, तब उसे यह सम्पूर्ण सृष्टि माया का खेल ही नज़र आती है। यह सम्पूर्ण सृष्टि अपना ही अंश मात्र दर्शाती है।