अध्याय ११
श्री भगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।४७।।
अब भगवान अर्जुन से कहने लगे कि :
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन! प्रसन्नता से,
२. मैंने अपने आत्म योग से,
३. यह अपना परम तेजोमय,
४. सबका आदि कारण,
५. सीमा रहित विराट रूप तेरे लिये दिखाया,
६. जो तुम्हारे सिवा किसी दूसरे से,
७. पहले नहीं देखा गया है।
तत्त्व विस्तार :
(भगवान अपने विराट रूप का वर्णन करते हैं।) करुणापूर्ण भगवान अर्जुन को सान्त्वना देते हुए कहने लगे :
‘जो अपना विराट रूप मैंने तुझे दिखाया है, वह मैंने तुझ पर प्रसन्न होकर ही दिखाया है। वास्तव में तो इस रूप को तुम्हारे अतिरिक्त और किसी ने कभी भी नहीं देखा। यह तो मेरा अतीव तेजोमय रूप है। यह तो मेरा अनन्त रूप है। इसी में सम्पूर्ण सृष्टि का आदिकारण निहित है। यह रूप तो मैंने तुझे अपने विशेष आत्म योग के बल से दिखाया है।’
मानो कह रहे हैं, ‘तू तो नाहक ही घबरा गया। मुझको प्रसन्न करने के लिए मुझसे क्षमा न मांग।
क) मैं तो आगे ही तुझसे प्रसन्न हूँ।
ख) तभी तो मैंने यह महान् दर्शन तुझे दिये हैं।
ग) तुझे तो मैंने वह दिया है जो मैं जहान में किसी को भी नहीं देता हूँ।
घ) तुझे तो मानो मैंने अपना आप दे दिया हो।
परन्तु यदि तुझे मेरा पूर्ण रूप पसन्द नहीं तो लो मैं फिर से सौम्य बन जाता हूँ।’
जीवन में विराट रूप :
नन्हीं! जीवन में भी लोग यही करते हैं। जीव यह नहीं समझते कि भगवान पूर्ण हैं। बुरा मिले या अच्छा मिले, हर रूप में भगवान होते हैं। द्वेष करना या अत्याचार करना, यह भी भगवान से भगवान पर और भगवान के द्वारा होते हैं। जो लोग आत्मा को समझते हैं, वह रुचिकर या अरुचिकर, दोनों को गुण खिलवाड़ जानते हुए निरपेक्ष भाव से देखते हैं। साधक विराट रूप देख कर ‘सब वासुदेव ही हैं,’ यह मान लेता है।
नन्हीं! जो लोग स्वयं अत्याचारी होते हैं, उनके लिये यह मानना असम्भव है। इस तत्त्व को तो सतोगुण प्रधान, आत्मवान् बनने का सच्चा अभिलाषी ही समझ सकता है। यह सब जानते हुए कि पूर्ण भगवान ही हैं, भागवद् प्रेमी हर पल पूज्य भाव में स्थित रहते हैं। वह भगवान की दुनिया को बुरा नहीं बनाना चाहते। वह तो अपने राही भागवद् गुणों को बहाते हैं। कोई उन्हें बुरा कहे तो वह सह लेते हैं, किन्तु स्वयं वह किसी को नहीं गिराते।