अध्याय ११
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।३१।।
अर्जुन कहते हैं भगवान से, हे भगवान!
शब्दार्थ :
१. आप मुझे बताइये कि आप,
२. उग्र रूप वाले कौन हैं?
३. आपको नमस्कार है, आप प्रसन्न होइये।
४. आदि पुरुष आप को मैं तत्त्व से जानना चाहता हूँ,
५. क्योंकि आपकी प्रवृति को मैं नहीं जानता।
तत्त्व विस्तार :
भगवान! आप मुझे बताओ,
1. विकराल रूप आपने क्यों धरा?
2. आप ही मुझे बता दें कि आप मुझे क्या समझाना चाहते हैं?
3. आपको सौम्य रूप, साख्य भाव में तो मैंने देखा है।
4. आपको महा ज्ञानवान् के रूप में भी मैंने देखा है, किन्तु इस भयंकर क्रूर रूप में पहले नहीं देखा।
मैंने आपका ऐसा संहारक रूप पहले कभी नहीं देखा। आप ही मुझे बताइये, इस अखिल संहारक रूप में आप कौन हैं?
आप ही आदि पुरुष हैं, मैं आपको तत्त्व से जानना चाहता हूँ।
आपकी प्रवृत्ति कैसे होती है और क्या है, यह मैं नहीं जानता, आप ही मुझे बताइये।