Chapter 11 Shloka 21

अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीता: प्राञ्जलयो गृणन्ति।

स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंघा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभि: पुष्कलाभि:।।२१।।

Those hosts of deities are entering into You.

Some, through fear, praise You with folded hands.

The elevated Rishis and Perfect Beings extol You

through beautiful hymns, saying, “May all be well.”

Chapter 11 Shloka 21

अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीता: प्राञ्जलयो गृणन्ति।

स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंघा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभि: पुष्कलाभि:।।२१।।

Arjuna said to the Lord:

Those hosts of deities are entering into You. Some, through fear, praise You with folded hands. The elevated Rishis and Perfect Beings extol You through beautiful hymns, saying, “May all be well.”

Arjuna notices:

1. Some elevated deities, knowing Your Omnipresence, are entering into You and are attaining You.

2. Some, knowing the Atma, are becoming Atmavaans.

3. They are becoming Your partners in the performance of yagya.

Several others, frightened of beholding You:

a) are praising You;

b) are immersed in Your Name;

c) are immersed in discussions of You;

d) are afraid of the travails of the world and seek Your refuge.

Yet others are saying, “May peace prevail somehow.”

In other words, people are worshipping You in many different ways. The Perfect Beings, the virtuous ones, the great Maharishis are all extolling You. Travellers on the path that leads towards You, they are endeavouring to emulate You in life.

The spiritual aspirant can merely say, “O Lord! I know that all this is transpiring within You. This is Your Cosmic and Omnipresent form. It stems from You and You are doing all. So whom shall I call superior and whom shall I call inferior? This is all Your divine play. Whom shall I eulogise and whom shall I reject? All tendencies of attachment and rejection have become superfluous.

I know now that I have no name or form which I can claim as my own – nothing can I dub as great or inferior. All are Thine. All are Thee. Knowing this, all attractions and aversions have vanished.”

अध्याय ११

अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीता: प्राञ्जलयो गृणन्ति।

स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंघा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभि: पुष्कलाभि:।।२१।।

अर्जुन कह रहे हैं भगवान से :

शब्दार्थ :

१. वह देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश करते हैं।

२. कुछ भयभीत हुए हाथ जोड़ कर स्तुति कर रहे हैं,

३. महर्षिगण और सिद्ध गण समुदाय, ‘कल्याण हो’, ऐसा कह कर,

४. उत्तम स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं।

तत्व विस्तार :

कोई महा देवता गण,

क) आपकी पूर्णता को जान कर आप में प्रवेश करते हैं, आप में विलीन होते हैं, आप को प्राप्त होते हैं।

ख) आत्म तत्व को जान कर आत्मवान् हो रहे हैं।

ग) जीवन में आपके यज्ञ में सहयोगी हो रहे हैं।

अनेकों आपको देख कर भयभीत हुए,

1. आपकी महिमा का गान करते हैं।

2. आप ही के नाम में मस्त रहते हैं।

3. आप ही की चर्चा में निमग्न बैठे हैं।

4. वे जग के दु:खों से डरते हैं और आपकी शरण में आते हैं।

और कई लोग यही कह रहे हैं कि किसी विधि कल्याण हो।

यानि, अनेक विधियों से जीव आपकी ही उपासना कर रहे हैं। सिद्ध गण, सुर गण, महर्षिगण, आप ही की महिमा गा रहे हैं। आप ही के पथ पथिक बने, वे आप ही को जीवन में उतारने के यत्न कर रहे हैं।

साधक यही कह सकता है, हे भगवान! मैंने जान लिया है कि ये सब आप में ही हो रहा है। ये सब आप का ही विराट और वैश्वानर रूप है। ये सब आप से ही हो रहा है और ये सब आप ही कर रहे हो; तो कहो किसे श्रेष्ठ कहूँ किसे न्यून कहूँ? सब आप हैं; आपकी ही लीला है। किसे सराहूँ, किसे ठुकराऊँ? ये राग द्वेष सब निरर्थक हो गये हैं। अब समझ गया कि यह पूर्ण आपकी क्रीड़ा है।

मैं तो इतना जान पाया हूँ कि मेरा नाम रूप कोई नहीं है। इस पल यह भी जान गया हूँ कि कोई श्रेष्ठ या न्यून अब नहीं रहा। सब तेरे, तुमसे हो गये, सब तुम्हीं अब हो गये हो। यह जान कर मेरे सम्पूर्ण राग द्वेष अब दूर ही हो गये हैं।

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