अध्याय ११
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम्।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोका: प्रव्यथितास्तथाहम्।।२३।।
अर्जुन पुन: कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. हे महाबाहो,
२. बहुत से मुख, नेत्रों वाला,
३. बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाला,
४. बहुत उदर और बहुत दाढ़ों वाला,
५. आपका महान् रूप देख कर,
६. मैं और सब लोक व्याकुल हो रहे हैं।
तत्व विस्तार :
देख नन्हीं! अर्जुन कहने लगे, ‘हे भगवान! आपका अखिल रूप देख कर मैं घबरा गया हूँ और अन्य लोक भी कांप रहे हैं। आपका बहुत हाथ, पांव और जंघा वाला यह रूप देख कर, यह लोक और मैं कांप रहे हैं। आपका बहुत बड़ा उदरों और भयानक दाढ़ों वाला रूप देख कर यह लोक और मैं कांप रहे हैं।’
यानि, विराट और विकराल विश्वरूप देख कर अर्जुन घबरा गया। विराट रूप में जब सुन्दरता देखी तब तो वह नहीं घबराया, परन्तु उसी विराट रूप में जब विकराल अंश देखा, तब वह घबरा गया।
इससे यह समझ लेना चाहिये कि अर्जुन एक साधारण जीव थे और ये सब देख कर भी वह आत्मवान् नहीं बने थे। अर्जुन अभी निर्पेक्ष भाव से सब कुछ स्वीकार नहीं करते थे। वह अभी उदासीन नहीं हुए थे।
नन्हीं! भगवान स्वयं उसके सामने खड़े थे तब भी वह इस दर्शन से घबरा गया। याद रहे, अर्जुन को यह विराट रूप भगवान की अपार कृपा से दिख रहा था। उसकी नित्य समाधिस्थ की स्थिति नहीं थी, इस कारण वह घबरा गया। यदि शनै: शनै: ‘वासुदेवमिदं सर्वम्’ का अभ्यास जीवन में करते हुए इस स्थिति पर पहुँचता, तो घबराने की जगह,
1. मौन द्रष्टा बन कर सब निरखता रहता।
2. सब परम है, यह जान कर उसका भय नष्ट हो जाता, तब वह भयभीत कैसे हो सकता था?
3. गर कृष्ण से प्रेम पूर्ण योग होता तो भी ‘सब कृष्ण है’, ऐसा जान कर वह मुदित मनी हो जाता।
किन्तु वह न आत्मवान् था, न परम योग स्थित था और न ही वह नित्य समाधिस्थ था, इस कारण वह भयभीत हुआ था। वह समझने लगा कि सम्पूर्ण जहान भी भयभीत हो रहा है।
अभी तो वह बाह्य गुणों से प्रभावित हो रहा था। अपनी स्थिति के कारण नहीं, केवल भागवद् कृपा से विराट के दर्शन कर रहा था।