अध्याय ११
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्यय: शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।।१८।।
अर्जुन, भगवान के विश्वरूप की स्तुति करते हुए कहने लगे :
शब्दार्थ :
१. आप ही जानने योग्य परम अक्षर हो;
२. आप ही इस विश्व के परम निधान हो;
३. आप ही अनादि धर्म के रक्षक हो;
४. आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हो;
५. ऐसा मेरा मत है।
तत्व विस्तार :
अर्जुन भगवान का विराट रूप समझने लगे और भगवान से कहने लगे:
1. अक्षर अविनाशी अव्यय तुम हो।
2. परम सनातन पुरुष तुम हो।
3. परम आश्रय इस जग के तुम हो।
4. धर्म स्वरूप भगवान तुम हो।
5. नित्य अध्यात्म, शाश्वत सत् हो तुम।
6. अध्यात्म पे प्रकाश भी तुम ही हो।
7. नित्य अविनाशी ज्ञान तुम ही हो।
8. अनादि धर्म का प्रमाण तुम ही हो।
9. परम आश्रय इस जग के तुम ही हो।
10. तुम ही तो सबका आधार हो।
11. आज देख कर तुम्हें जानूँ कि तुम ही इक करतार हो।
12. तुम दुर्विज्ञेय हो, यह जानता हूँ, पर ज्ञातव्य भी इक तुम ही हो।
13. तुम अतीन्द्रिय तत्त्वहो, यह जानता हूँ, पर प्राप्तव्य भी इक तुम ही हो।
14. तुम साक्षात् धर्म स्वरूप हो।
तुम साक्षात् धर्म प्रमाण हो।
तुम साक्षात् धर्म ही हो।
15. आत्म के तद्रूप हुआ अब अर्जुन सत् देख कर कहता है, ‘यही मेरा मत है।’
यानि, ‘मैं सत् कहता हूँ भगवन्! मैं यही सत् मानता हूँ कि जो है सब तू ही है।’