अध्याय ११
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।।१३।।
अर्जन का एक तन में पूर्ण को देखना!
शब्दार्थ :
१. अर्जुन ने उस काल में,
२. अनेक प्रकार से विभक्त हुए सम्पूर्ण जग को,
३. उस देवों के देव (कृष्ण के) शरीर में,
४. एक जगह स्थित देखा।
तत्व विस्तार :
क) संजय कहते हैं कि अर्जुन ने आत्म तत्त्वस्वरूप भगवान में सम्पूर्ण संसार को देख लिया।
ख) एक अखण्ड तत्त्व, जो विभाजित सा दिखता था, उसे पुन: अखण्डता में देख लिया।
ग) जिस संसार को एक रूप मानना कठिन ही नहीं असम्भव लगता था, उसे एक में एक होते देख लिया।
घ) नन्हीं! चर्म चक्षु जब देखते हैं, तब अखण्ड भी खण्डित सा दर्शाता है। दिव्य चक्षु जब देखते हैं, तब भिन्नता में भी अखण्डता नज़र आती है।
ङ) यदि तू भी अपने आपको उससे अलग न समझे, तो तू भी अखण्डता को समझ सकेगी।
च) जब तुम स्वयं अपनी व्यक्तिगतकर ‘मैं’ तथा तनत्व भाव से परे हो जाओगी, तब ही तुम अखण्ड की अखण्डता समझ सकती हो।
अर्जुन ने ब्रह्म तत्व स्वरूप, ब्रह्म रूप, कृष्ण तत्व में पूर्ण संसार को समाहित देखा।
देख नन्हीं! यहाँ तन धारी कृष्ण की बात नहीं कर रहे। यहाँ कृष्ण भी तन के तद्रूप होकर अर्जुन को ज्ञान नहीं दे रहे, बल्कि वह आत्मा में स्थित होकर मानो आत्मा के दृष्टिकोण से बात कर रहे हैं।
नन्हीं! कुछ पल के लिये यह कल्पना तो करके देखो कि :
1. तुम तन नहीं हो और तन तुम्हारे लिये व्यर्थ है।
2. तुम्हारे मन में तुम नहीं, कोई और बसता है।
3. तुम्हारे मन में तुम नहीं, भगवान बसते हैं।
वास्तव में भी तुम्हारे तन पर तुम्हारा राज्य नहीं, प्रकृति के दिये हुए गुणों का राज्य है। यह जान कर ही अपनी तनो मलकीयत थोड़ी देर के लिए छोड़ कर देखो तो सही! तब शायद तुझे भगवान की यह बातें थोड़ी थोड़ी समझ आने लगें।