अध्याय ११
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्त: कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।।२।।
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।।३।।
अर्जुन ने भगवान से कहा, ‘मेरा मोह नष्ट हो गया है’, क्योंकि,
शब्दार्थ :
१. हे कमलनयन भगवान!
२. मैंने आपसे भूतों की उत्पत्ति, लय और आपके अत्यन्त महात्म्य को भी नि:सन्देह विस्तार पूर्वक सुना है,
३. आप जैसा कहते हो, वैसे ही आप परम पुरुष हो,
४. मैं आपका ऐश्वर्य पूर्ण रूप देखना चाहता हूँ।
तत्व विस्तार :
हे भगवान! जो आपने अभी तक कहा,
क) उसको मैं अक्षरश: सत्य मानता हूँ।
ख) आप पूर्ण हैं, यह भी मानता हूँ।
ग) आप दिव्य हैं, यह भी मानता हूँ।
घ) आप निराकार हैं, यह भी मानता हूँ।
पर मुझे ऐसे दिव्य दर्शन दें जिससे मैं :
1. आपको उस पूर्णता के रूप में देख सकूँ।
2. आपको उस विराट रूप में देख सकूँ।
3. आपको उस पूर्ण समष्टि रूप में देख सकूँ।
4. आपकी पूर्णता का अनुमान सहज में लगा सकूँ।
आपकी विभूतियों को मैंने जान लिया है। आपकी सृष्टि को मैंने जान लिया है। आपकी त्रिगुणमयी माया को मैंने जान लिया है। सब आप ही करते हैं, यह भी जान लिया है मैंने।
यह सब आपमें कैसे होता है, अब मैं यह देखना चाहता हूँ।
1. यह उत्पत्ति और लय आपमें कैसे होती है, यह मैं देखना चाहता हूँ।
2. यह सम्पूर्ण गुण वाले भूत आपमें कैसे समाते हैं, यह मैं देखना चाहता हूँ।
3. आप परम पुरुष पुरुषोत्तम हैं, आपके ईश्वर रूप के मैं दर्शन करना चाहता हूँ।
यानि, जैसे आपने अपने रूप का वर्णन किया है, उसे मैं पूर्णतय: देखना चाहता हूँ, मैं यह देखना चाहता हूँ कि यह सम्पूर्ण सृष्टि आपमें कैसे समाई हुई है?
आप अपने विराट रूप को मुझे दर्शाइये।