Chapter 5 Shloka 26

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।२६।।

Those Seers, who are freed from desire and anger

and, having conquered their mind-stuff,

have realised the Atma, they constantly dwell in

and are surrounded by Brahm Nirvana.

Chapter 5 Shloka 26

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।२६।।

The Lord reiterates:

Those Seers, who are freed from desire and anger and, having conquered their mind-stuff, have realised the Atma, they constantly dwell in and are surrounded by Brahm Nirvana.

Little one! The Lord again states, that those who have overcome desire and anger, such people of controlled mind-stuff attain emancipation.

Yat (यत्)

a) Those who cherish traditional values.

b) Those with a controlled mind-stuff.

c) Those who have conquered the mind-stuff.

Chetas (चेतस्)

1. The abode of the individual’s knowledge.

2. The abode wherein the individual’s tendencies and thought processes reside.

3. The mental cave from where the mental concepts and ideologies emerge.

4. That region from where the sanskars or latencies of past births emerge to attain fulfilment.

5. It is from here that all the internal coverings emerge, presented to the world as the person’s ‘mind’.

6. It is here that the person’s consciousness of his individual existence resides.

7. The chit is the birthplace of the ego, pride, arrogance and other related thought processes.

8. The chit is the abode of the conscious, subconscious and unconscious good and bad traits.

Now little one, understand the meaning of a ‘pure’ or ‘controlled’ chit:

a) If the person’s tendencies are purified, the person’s chit or mind-stuff is called pure.

b) If the attachment, greed, craving etc. which arises from contact with the sensory world ceases, then the mind-stuff becomes pure.

c) Absence of the complex knots of the mind-stuff is indicative of its purity.

d) The varied unsatiated desires lying within, concealed by the individual, augment the impurity of his chit.

e) Purity of the mind-stuff is the disappearance of the ‘knots of thought processes of the mind’.

f) All mental aberrations are the impurities of the mind-stuff, they are the cause of the impurity of one’s life.

g) All internal conflicts are a result of the impurity of the mind-stuff.

h) All these negative tendencies, which grip the mind in an inextricable mesh, form the impurities of the mind-stuff. The elimination of all these leads to purity within.

i)  The impure mind-stuff nurtures untruth.

j)  The pure mind-stuff, however, nurtures the Truth.

The cause of internal impurity

1. All impurities of the mind-stuff are the result of accepting the untrue as true and the impossible as possible.

2. They are caused by moha and mental incongruities.

3. They are caused by an erroneous belief in the mirage of Truth seen in the false.

4. They are sustained by an intellect filled with attachment.

5. They are caused by embracing wrong principles in one’s life.

6. Impurity is also nurtured when the unreal is seen as the Real.

a) Little one! Those who embrace the Truth, will achieve purity.

b) If they truly love the Truth, and have no compunction about hearing the truth about themselves, they will speedily attain purity.

c) Those who like to live in reality possess a pure mind-stuff.

d) Those who have learned to see the truth about themselves, are purified.

The one who has gained control over his mind-stuff, has conquered his self and his senses, he is the one with a pure chit. He is ever united with the Truth and is pure of heart. Love for the Truth and the Supreme purifies the mind-stuff and fills a person with the attitude of selflessness. Such a one is governed by the Atma Self. He who has attained knowledge of the Atma and is united with the Atma, will necessarily be freed from craving and anger.

The Lord says that such a one is surrounded by Brahm Nirvana, or the final emancipation that comes from mergence in Brahm. The interaction of such a one is in complete internal silence – just as Brahm is ever silent. This is not silence of speech – such a one is silent towards himself.

The mauni, the ‘silent’ one, is the image of indifference towards his own body. His mind and chit become indifferent and detached. As a result he attains the state of total internal silence.

Such elevated souls, who are surrounded by Brahm Nirvana, abide in the Atma and consider all to be the Atma. Therefore they traverse the world as players on a stage.

a) They take no cognisance of the external words and deeds of others.

b) Nor are they affected by the other’s mental attributes or beliefs.

c) They simply know the other to be the Atma and deal with the other accordingly.

d) They know that all are controlled by the interaction of gunas and treat them accordingly.

e) Therefore they disregard the gross attributes of all beings and interact in the Supreme Presence of Brahm.

अध्याय ५

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।२६।।

अब भगवान फिर से कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. काम क्रोध से रहित,

२. जीते हुए चित्त वाले,

३. जो आत्मा को जान लेते हैं,

४. उन ‘यति’ जनों के लिये, सब ओर से ब्रह्म निर्वाण वर्तता है।

तत्व विस्तार :

देख नन्हीं! भगवान फिर से समझा रहे हैं कि काम क्रोध रहित लोग तथा ‘जीते हुए चित्त वाले’ मोक्ष को पा लेते हैं।

यत् का अर्थ है :

क) मर्यादा पूर्ण चित्त वाले;

ख) संयमित चित्त वाले;

ग) प्रतिबद्ध किये हुए चित्त वाले;

घ) वश में किये हुए चित्त वाले;

चेतस् का अर्थ भी जान लो : (चेतस्’ के सन्दर्भ में चौथे अध्याय का तेईसवां श्लोक देखिये!)

1. चेतस जीव के ज्ञान धाम को कहते हैं।

2. चेतस् वह धाम है जहाँ जीव की वृत्तियों का वास है।

3. चेतस् वह धाम है जहाँ से चित्त वृत्तियाँ बाहर निकलती हैं।

4. चेतस् वह धाम है जहाँ से विभिन्न संस्कार अपनी वृत्ति को तृप्त करने के लिये उभरते हैं।

5. सम्पूर्ण आवरण चित्त से ही मन का रूप धर कर बाहर निकलते हैं।

6. चित्त ही जीवत्व भाव का भी धाम है।

7. चित्त ही अहंकार, दम्भ, दर्प रूपा वृत्तियों का जन्म स्थान है।

8. चित्त में अर्धचेत, अचेत तथा चेत रूप में सम्पूर्ण दुर्वत्तियाँ तथा सद्वृत्तियाँ एकत्रित होकर रहती हैं।

अब नन्हीं! ‘वश में चित्त’ या ‘शुद्ध चित्त’ को समझ ले।

क) यदि चित्त की दुर्वृत्तियाँ पावन हो जायें तब जीव के चित्त को शुद्ध चित्त कहते हैं।

ख) बाह्य विषय सम्पर्क के परिणाम में संग, लोभ, कामना रूपा जो वृत्तियाँ अचेत या अर्धचेत में एकत्रित हो जाती हैं, यदि उनका अभाव हो जाये तो चित्त शुद्ध होता है।

ग) ‘चित्त जड़ ग्रन्थियों’ का अभाव ही चित्त शुद्धि है।

घ) आन्तर में जो अतृप्त चाहना जीव छुपाकर रखता है, वह भी चित्त की अशुद्धि है।

ङ) सम्पूर्ण मनो विकार चित्त की अशुद्धि हैं, यही जीवन को अशुद्ध करते हैं।

च) जीव के चित्त में सम्पूर्ण प्रतिद्वन्द्व अशुद्धि के कारण ही होते हैं।

छ) नन्हीं! यह सम्पूर्ण मनोजाल का सामान इस चित्त में ही भरा हुआ होता है, जो अशुद्ध है। सबका अभाव ‘चित्त शुद्धि’ है।

ज) अशुद्ध चित्त में असत् पलता है।

झ) शुद्ध चित्त में सत् पलता है।

चित्त अशुद्धि का कारण :

चित्त की सम्पूर्ण अशुद्धियाँ,

1. असत् को सत् मान लेने के कारण उत्पन्न होती हैं।

2. असम्भव को सम्भव मान लेने के कारण उत्पन्न होती हैं।

3. मोह के कारण उत्पन्न होती हैं।

4. भ्रान्ति के कारण उत्पन्न होती है।

5. असत् में सत् के आभास मात्र को सत् मान लेने से उत्पन्न होती हैं।

6. मोहित बुद्धि के कारण होती है।

7. झूठे सिद्धान्तों को अपना लेने के कारण उत्पन्न होती हैं।

8. अवास्तविकता में वास्तविकता के दर्शन के कारण उत्पन्न होती हैं।

नन्हीं!

क) जो लोग सत् के परायण हो जाते हैं, उनका चित्त शुद्ध हो ही जाता है।

ख) जिन्हें सत् प्रिय होता है, उन्हें अपने बारे में भी यदि सत् सुनना प्रिय लगे, तो वे जल्द ही पावन चित्त वाले हो जाते हैं।

ग) जिन्हें हक़ीकत में रहना पसन्द है, वे शुद्ध चित्त वाले हो जाते हैं।

घ) जिन्हें अपनी वास्तविकता देखनी आती है, वे शुद्ध हो ही जायेंगे।

वश में हुए चित्त वाला, विजित आत्मा, विजित इन्द्रिय, संयम में रहने वाला, युक्तात्मा इत्यादि, यह सब शुद्ध चित्त वाले के चिन्ह हैं।

सत् प्रियता ही चित्त को शुद्ध करती है; परम में प्रेम ही चित्त को शुद्ध करता है; इनके परिणाम स्वरूप जीव निष्काम भाव से परिपूर्ण हो सकता है।

यहाँ भगवान ऐसे ही शुद्ध हुए चित्त वाले की बात कह रहे हैं।

शुद्ध चित्त आत्मा के वश में होता ही है। आत्म ज्ञान जिसे हो जाता है और आत्मा से जिसका योग हो जाता है, वह काम तथा क्रोध से रहित हो ही जाता है। ऐसे आत्मवान् के लिये कहते हैं कि उसके चहुँ ओर ब्रह्म निर्वाण वर्तता है।

वह चहुँ ओर ब्रह्म रूपा मौन धारण किये हुए ही वर्तता है। ‘मौन’ केवल वाणी का मौन नहीं होता; मौन अपने तन के प्रति नितान्त उदासीन का स्वरूप है।

मौनी उदासीन चित्त वाला हो जाता है।

मौनी उदासीन मन वाला हो जाता है।

उसका परिणाम निहित मौन स्वरूप में स्थिति है।

नन्हीं! ऐसे लोग ‘नित्य ब्रह्म निर्वाण में वर्तते हैं’, यह पुन: समझ ले। ऐसे लोग आत्मा में रहते हैं और सबको आत्मा ही जानते हैं, इस कारण वह संसार में मानो नाटक करते हुए, सबमें आत्मा को देखते हुए वर्तते हैं। इसे यूँ समझ नन्हीं!

1. वे लोगों के बाह्य कर्मों या शब्दों पर ध्यान नहीं देते।

2. वे लोगों के मनों तथा मान्यताओं पर चित्त नहीं धरते।

3. वे मानो पहले ही सबको आत्मा जानकर व्यवहार करते हैं।

4. वे जानते हैं कि गुण गुणों में वर्त रहे हैं और उसके अनुकूल व्यवहार कर देते हैं।

5. वे स्थूल ज्ञान या रूप की ओर ध्यान न देते हुए मानो ब्रह्म में ही वर्तते हैं।

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