Chapter 5 Shloka 18

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:।।१८।।

A man of wisdom perceives equally,

a learned and humble Brahmin,

a cow, an elephant, a dog and an outcast.

Chapter 5 Shloka 18

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:।।१८।।

The Lord further describes such an Atmavaan:

A man of wisdom perceives equally, a learned and humble Brahmin, a cow, an elephant, a dog and an outcast.

Pandit (पण्डित) – A man of wisdom

1. The pandit is one with the Atma.

2. Nothing matters to him but the Atma.

3. The body has no meaning for him.

4. He knows that all that is, is caused by the interaction of gunas. There is no other doer.

5. He knows also that nothing is under one’s control.

6. All names and forms arise from the elements and eventually merge back into the elements. Therefore, pride is futile.

7. The wise Atmavaan knows that all is Atma. So how can anything be called superior or inferior?

Therefore, a learned Brahmin, a cow, an elephant, a dog, or a degenerate wretch – all possess the same importance in the eyes of that wise Atmavaan. Hence he is free of fault. But his behaviour towards them will not be the same for all.

Equanimity in attitude – not in interaction

a) It is however important to note, that although such a one sees all as alike, his dealing with each one is different.

b) Equality lies in his perception, not in his treatment of the other, because he knows that the gunas that bind each one are different.

c) Although the man of wisdom is not affected by those gunas, he will do for the other what is best for him in accordance with his attributes and needs; he will not needlessly perturb him.

d) Even outwardly such a one never remains the same:

­­–  He has no form of his own.

­­–  He is not bound by any beliefs.

­­–  He is not bound by any customs.

­­–  He has no status of his own.

He imparts knowledge to the other only when and if asked and in accordance with the other’s level of understanding. Often, he does not express or manifest himself because he prefers to be ordinary amongst the ordinary folk.

When the Lord says that such a one views all as equal, He is explaining the Atmavaan’s view point.

1. If he is not the body and the gunas are not ‘his’, then exactly the same applies to all others.

2. He knows that just as his own body is a product of the threefold qualitative energy of Prakriti, so also are all other bodies.

3. If his own gunas, name and form are not in his control, then those of others are also not in their control.

4. If the Atmavaan performs all actions as a non-doer, he knows that the other too, cannot be a doer.

The difference lies only in one’s viewpoint, one’s understanding, one’s attachment or the lack of it. Other people do not know that they are the Atma – the Atmavaan knows that he is the Atma. The Atmavaan looks upon all equally, but interacts with them in accordance with their gunas because he knows that:

a) if you are the Atma, so are all others;

b) if you are Brahm, so are all others;

c) whatever you are, the others are the same.

The only difference is that he has realised it as a fact, whereas the others may not be aware of it. But their ignorance does not change the fact that they are the Atma. A person may not know that the world is a play of the gunas, but that does not change the effect of the gunas on this world. Your ignorance or knowledge does not change the truth about a fact.

Since that one with the discriminating intellect knows that all are essentially the Atma, he blames nobody for any negative attributes and regards them all as himself – be they young or old, evil or saints, or even animals – all are Atma.

Hence the Atmavaan considers himself the same as all others; he does not consider himself or others as superior or inferior.

However, even though he views them all as equals, his behaviour towards them is in accordance with their beliefs and their attributes.

अध्याय ५

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:।।१८।।

ऐसे आत्मवान् के लिये भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. ज्ञानी जन,

२. विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण,

३. गाय, हाथी, कुत्ते

४. तथा दुष्ट कर्म करने वाले,

५. सबको बराबर देखते हैं।

(यानि, सबके प्रति उनकी दृष्टि सम होती है।)

तत्व विस्तार :

पण्डित गण :

1. आत्मवान् आत्म स्थित होते हैं।

2. उनके लिये आत्म बिना कुछ रहता ही नहीं है।

3. उनका तन, उनके लिये कोई महत्व नहीं रखता।

4. वे जानते हैं कि गुण खिलवाड़ स्वत: होता है।

5. वहाँ कोई कर्ता नहीं रह जाता।

6. किसी के बस में कुछ नहीं, यह वे जान लेते हैं।

7. नाम, रूप, तत्वन् ने रचे हैं, यह वे जान लेते हैं।

8. सम्पूर्ण शरीर तत्वों से उभरे हैं, तत्वों में मिल जाते हैं, यह वे जान लेते हैं।

9. वे जानते हैं कि गुण अपनायें भी, तो नाहक ही अपनाते हैं; क्योंकि गुण किसी के बस में नहीं। वे जान लेते हैं कि यह दम्भ नाहक ही है।

10. ‘सब आत्मा ही है’, आत्मवान् यह जान ही जाता है।

11. आत्म बिना यहाँ कुछ भी नहीं, वह यह पहचान ही जाता है।

12. कौन श्रेष्ठ, फिर कौन न्यून? उसके लिये सब समान होते हैं।

ऐसे आत्मवान् के लिये, विद्या विनय सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल, सब समान हैं। इस कारण वे नित्य निर्दोष होते हैं।

पर याद रहे, यह वर्तन में नहीं, दृष्टि में सम हो जाते हैं।

समवर्तन नहीं, समदृष्टि होती है :

क) नन्हीं! उस आत्मवान् के वर्तन में समता नहीं होती, दृष्टि में समता होती है।

ख) वह जानता है कि सबके गुण बराबर नहीं होते; सब प्रकृति रचित होते हैं; सब ही निजी गुणों से बंधे होते हैं।

ग) दूसरों के गुणों से ज्ञानी जन प्रभावित नहीं होते।

घ) साधारण जीव को ज्ञानी जन विचलित भी नहीं करते। जो दूसरे के लिये ठीक है, वे वही कर देते हैं।

ङ) वे आप भी किसी रूप में स्थिर नहीं रहते।

1. उनका अपना कोई रूप नहीं होता।

2. उनकी अपनी कोई मान्यता नहीं होती।

3. उनकी अपनी कोई प्रथा भी नहीं होती।

4. उनकी अपनी स्थिति कोई नहीं होती।

वे ज्ञान भी दूसरे के पूछने पर, दूजे की स्थिति देखकर ही देते हैं। वे दूसरे की समझ के अनुसार ही ज्ञान देते हैं, अपना ज्ञान दिखाना नहीं चाहते। अनेक बार तो वे अपने को प्रकट भी नहीं करते, क्योंकि साधारण व्यक्तियों से मिलकर वे साधारण ही बने रहते हैं। उनका वर्तन दूसरे के समान होता है। परन्तु दृष्टि सब की ओर सम होती है।

आत्मवान् की स्थिति समझाते हुए भगवान ने यहाँ जो संत, दुष्ट और जानवरों के प्रति ‘समान दृष्टि’ की बात कही, उसे समझ ले।

1. जब आपका तन आपका नहीं और आपके गुण आपके नहीं, तब बाकियों के तन तथा गुण उनके कैसे हो सकते हैं?

2. यदि आपका तन त्रिगुणात्मिका शक्ति ने रचा है, तो उनका तन भी तो उसी शक्ति ने रचा है।

3. यदि आपके गुण आपके बस में नहीं, तो उनके गुण भी उनके बस में नहीं हैं।

4. यदि आपका नाम और रूप आपके बस में नहीं है, तो उनका नाम रूप भी उनके बस में नहीं है।

5. यदि आप सब कुछ करके नित्य अकर्ता हैं, तो वे भी सब कुछ करके नित्य अकर्ता हैं।

भेद केवल दृष्टिकोण का है, ज्ञान का है, निर्मोह और मोह का है। अन्य जीव जानते नहीं कि वह आत्मा है। आत्मवान् जानता है कि वह आत्मा है। इस कारण आत्मवान् की उनके प्रति दृष्टि तो सम होती है किन्तु कर्म या वर्तन् गुणों के अनुसार होता है।

नन्हीं! इसे पुन: समझ :

क) यदि तुम आत्मा हो तो बाकी सब भी आत्मा हैं।

ख) यदि तुम ब्रह्म हो, तो बाकी सब भी ब्रह्म हैं।

ग) जो तुम हो, वास्तव में बाकी सब भी वह ही हैं।

भेद तो केवल दृष्टिकोण का है; ज्ञान का है; आन्तरिक स्थिति का है।

तुम शायद जानते हो कि तुम आत्मा हो, वह शायद नहीं जानते कि वह आत्मा हैं, परन्तु, अज्ञान का अर्थ यह तो नहीं कि वह हक़ीकत नहीं है, अज्ञान का अर्थ यह तो नहीं कि वह आत्मा नहीं हैं।

गुण अविवेकी नहीं जानता कि जहान गुण खिलवाड़ है; किन्तु किसी के समझने या न समझने से त्रिगुणात्मिका शक्ति रचित संसार के गुण तो नहीं बदल जायेंगे! जो है, सो तो है ही, तुम जानो या न जानो, मानो या न मानो तुम्हारी रज़ा।

विवेकी जानता है, कि सब आत्मा है, आत्म रूप हैं, इस कारण वह किसी को दोष नहीं देता, इस कारण वह सबको अपने समान ही मानता है। आत्मवान् पण्डित के लिये छोटा भी आत्मा है, बड़ा भी आत्मा है; दुष्ट भी आत्मा है, जानवर भी आत्मा है तथा संत भी आत्मा है; किन्तु सबके गुण तथा विवेक भिन्न होने के कारण, सबकी कार्य प्रणाली भिन्न भिन्न है। गुण तथा ज्ञान भेद के कारण सबकी मान्यतायें फ़र्क हैं, दृष्टिकोण फ़र्क हैं।

इस कारण आत्मवान् :

1. अपने आपको सबके समान मानता है।

2. अपने आपको या औरों को श्रेष्ठ या न्यून नहीं मानता।

लोगों की मान्यताओं तथा गुण भेद के कारण, वह सबसे भिन्न भिन्न प्रकार का वर्तन करता है, किन्तु दर्शन में वह सबको समान जानता है।

Copyright © 2024, Arpana Trust
Site   designed  , developed   &   maintained   by   www.mindmyweb.com .
image01